बटवारे की यादें लेकर आया वो नौजवान कैसे बना भारत कुमार?

सुबह का वक्त था 4 अप्रैल 2025 मुंबई का कोकिला बेन अस्पताल जहां सन्नाटा अपनी चादर बिछाए हुए था अचानक एक खबर हवा में तैरती हुई हर कोने तक पहुंची भारत कुमार यानी मनोज कुमार अब इस दुनिया में नहीं रहे 87 साल की उम्र में उन्होंने अपनी आखिरी सांसे ली वो शख्स जिसने अपनी फिल्मों से देशभक्ति के लौ को हर दिल में जलाया आज चुपचाप अलविदा कह गया लेकिन क्या यह सिर्फ एक अभिनेता का जाना था नहीं यह उस तूफान का अंत था जो कभी एबटा की गलियों से उठा था वो जो भारत-पाकिस्तान बंटवारे की में तप कर मुंबई की फिल्मी दुनिया में चमक बन गया उनकी कहानी शुरू होती है 1937 से जब एक छोटे से शहर में एक बच्चे ने जन्म लिया जिसका नाम था हर कृष्ण गिरी गोस्वामी यह कहानी सिर्फ शोहरत की नहीं बल्कि उस दर्द उस हिम्मत और उस जज्बे की है जिसने एक आम लड़के को भारत कुमार बना दिया।

1937 की गर्मियों का वह दिन था 24 जुलाई ब्रिटिश भारत के उत्तर पश्चिमी फ्रंटियर प्रांत के एदाबाद में एक पंजाबी ब्राह्मण परिवार में एक नन्हा मेहमान आया उनके पिता हीरालाल गोस्वामी एक साधारण इंसान थे दिनरा मेहनत करके वह अपने परिवार का पेट पालते थे उनकी मां राधा देवी एक धार्मिक और साहसी महिला थी घर में सुबह शाम भजन गूंजते और राधा अपने बच्चों को नैतिकता की कहानियां सुनाती हरे कृष्ण उस घर का सबसे बड़ा बेटा था बचपन से ही उसकी आंखों में एक चमक थी एक ऐसी चमक जो सपनों को सच करने की भूख दिखाती थी वो गलियों में दोस्तों के साथ खेलता पतंग उड़ाता और कभी-कभी अपने पिता के साथ बाजार जाता लेकिन यह बेफिक्र दिन ज्यादा ना चल सके 1947 आया और इसके साथ आया वो बंटवारा जिसने हरे कृष्ण की जिंदगी को हमेशा के लिए बदल दिया हरे कृष्ण तब सिर्फ 10 साल का था एक रात जब आसमान में चांद भी डर से छिप गया था उसके परिवार को अपना घर छोड़कर भागना पड़ा शुरू हो चुके थे चारों तरफ आग की लपटें चीखें और अफरातफरी हीरालाल ने अपनी पत्नी और बच्चों को सीने से लगाया और कहा हमारा घर अब यहां नहीं रहा रातोंरात वो ट्रक में सवार होकर दिल्ली की ओर चल पड़े रास्ते में वह भूखे रहे प्यासे रहे एक बार तो हर कृष्ण की छोटी बहन बीमार पड़ गई और मां राधा रात भर उसे गोद में लिए रोती रही।

दिल्ली पहुंचकर वो किंग्सवे कैंप में रुके एक शरणार्थी शिविर जहां टूटी-फूटी टेंटों में जिंदगी गुजरती थी हरे कृष्ण अक्सर अपने पिता के साथ लाइन में खड़ा होता जहां राशन के लिए घंटों इंतजार करना पड़ता था वो दर्द वो अपने घर को खोने की टीस वो मां-बाप की आंखों में बेबसी यह सब उसके नन्हे दिल में गहरे उतर गए उसने ठान लिया कि वह अपने परिवार को वह सम्मान दिलाएगा जो बंटवारे ने छीन लिया था दिल्ली में जिंदगी एक नई जंग थी।

हीरालाल ने छोटी-मोटी नौकरी शुरू की और राधा ने घर संभाला हर कृष्ण ने अपनी पढ़ाई हिंदू कॉलेज में शुरू की वो एक शांत और मेहनती लड़का था कॉलेज में वह किताबों में खोया रहता लेकिन उसका मन कहीं और था एक दिन उसने दिलीप कुमार की फिल्म शबनम देखी स्क्रीन पर दिलीप साहब को देखकर उसके दिल में कुछ हलचल हुई उसने सोचा अगर यह मुमकिन है तो मैं भी कर सकता हूं उस दिन उसने अपना नाम बदलकर मनोज रख लिया मनोज एक नाम जो उसे अपने सपनों की ओर ले गया लेकिन फिल्मों की दुनिया में कदम रखने से पहले उसकी जिंदगी में एक और किरदार था उसके चाचा लेखराज भाकरी लेखराज फिल्म जगत में पहले से सक्रिय थे वह छोटी-मोटी फिल्में बनाते थे और मनोज के लिए वो एक गुरु की तरह थे।

लेखराज अक्सर कहते मनोज यह दुनिया आसान नहीं है यहां मेहनत और किस्मत दोनों चाहिए उनकी सलाह ने मनोज को मुंबई की राह दिखाई 20 साल के उम्र में मनोज ने मुंबई का रुख किया ट्रेन से उतरते ही वो उस चकाचौंध को देखकर हैरान रह गया ऊंची इमारतें भागती गाड़ियां और सपनों की भीड़ यह सब उसे एक साथ डराता और ललकारता था शुरुआत में उसे छोटे-मोटे काम मिले कभी सेट पर लाइट्स ठीक करना कभी छोटे रोल के लिए ऑडिशन देना कई बार तो उसे रातों भूखे पेट गुजारनी पड़ी लेकिन 1957 में उसकी जिंदगी ने करवट ली लेखराज भाकरी की फिल्म फैशन में उसे एक मौका मिला किरदार था एक 80 साल के भिखारी का 19 साल का नौजवान जिसने बुढ़ापे का मेकअप पहना और ऐसा अभिनय किया कि लोग दंग रह गए।

फिल्म हिट तो नहीं हुई लेकिन मनोज का नाम कुछ प्रोड्यूसर्स की नजर में आ गया फिर 1960 में कांच की गुड़िया में उसे पहली बार लीड रोल मिला यहां से उसका असली सफर शुरू हुआ 1962 में हरियाली और रास्ता आई माला सिन्हा के साथ उसकी जोड़ी को दर्शकों ने हाथों हाथ लिया फिल्म के गाने आज भी लोगों की जुबान पर है लेकिन असली मोड़ 1965 में आया जब शहीद रिलीज हुई भगत सिंह का किरदार निभाते हुए मनोज ने देशभक्ति को एक नया आयाम दिया।

एक सीन में जब वह के तख्ते पर चढ़ते हैं तो सिनेमाघरों में सन्नाटा छा जाता था एक सीन में जब वो के तख्ते पर चढ़ते हैं वह सीन देखकर सिनेमाघरों में सन्नाटा छा जाता था लोग रोते थे तालियां बजाते थे इस फिल्म के बाद उन्हें भारत कुमार का खिताब मिला ।

1965 के भारतपाक के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने उनसे मुलाकात की शास्त्री जी ने कहा मनोज देश को तुम्हारी जरूरत है जय जवान जय किसान पर कुछ करो नतीजा था उपकार 1967 एक ऐसी फिल्म जिसने उन्हें देशभक्ति का प्रतीक बना दिया ।

गाना मेरे देश की धरती आज भी हर भारतीय के दिल में बसता है इस फिल्म के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फिल्मफेयर पुरस्कार मिला मनोज का करियर अब आसमान छू रहा था पूरब और पश्चिम 1970 में उन्होंने भारत और पश्चिमी संस्कृति के टकराव को दिखाया सायरा बानो के साथ उनकी केमिस्ट्री कमाल की थी फिर आई रोटी कपड़ा और मकान 1974 एक ऐसी फिल्म जो आम आदमी की जिंदगी को स्क्रीन पर लाए इसमें उनका गाना मैं ना भूलूंगा लोगों के दिलों में उतर गया 1981 की फिल्म क्रांति ने उन्हें फिर से शोहरत की बुलंदियों पर पहुंचाया दिलीप कुमार और हेमा मालिनी के साथ उनकी तगड़ी ने धमाल मचा दिया इन फिल्मों में मनोज सिर्फ अभिनेता नहीं थे वह लेखक निर्देशक और निर्माता भी थे उनकी फिल्में समाज को आईना दिखाती थी किसानों की तकलीफ देश की एकता और गरीबों का दर्द यह सब उनकी कहानियों का हिस्सा था।

लेकिन हर ऊंचाई के बाद एक ढलान आती है 1980 के बाद उनका करियर ठहरने लगा क्रांति की सफलता के बाद उनकी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर कमजोर पड़ने लगी क्लर्क 1989 में उन्होंने एक आम क्लर्क की जिंदगी दिखाने की कोशिश की लेकिन दर्शकों ने नकार दिया मैदान 1995 भी फ्लॉप रही लोग कहने लगे कि भारत कुमार का जादू खत्म हो गया एक बार एक इंटरव्यू में मनोज ने कहा मैं वही बनाता हूं जो मेरा दिल कहता है हिट फ्लॉप तो किस्मत का खेल है वो कम फिल्में करने लगे लेकिन जो बनाई उसमें उनका जज्बा छलकता था।

उनकी आखिरी निर्देशित फिल्म जय हिंद 1999 थी यह फिल्म ज्यादा चर्चा में नहीं आई और इसके बाद वो धीरे-धीरे फिल्मी दुनिया से दूर होते चले गए अब बात उनके परिवार की करते हैं मनोज की शादी शशि गोस्वामी से हुई थी शशि उनके कॉलेज की दोस्त थी दोनों की मुलाकात हिंदू कॉलेज के एक नाटक के दौरान हुई थी शशि को सादगी पसंद थी और मनोज को उनकी सादगी भरी मुस्कान ने बांध लिया 1963 में दोनों ने शादी कर ली उनके दो बच्चे हुए कुणाल गोस्वामी और कोमल गोस्वामी कुणाल ने कुछ फिल्मों में काम किया जैसे गुलाम मुस्तफा 1997 लेकिन वो अपने पिता की तरह शोहरत ना पा सके कोमल ने फिल्मों से दूरी बनाए रखी और अपनी जिंदगी में शांत रहना पसंद किया मनोज के भाई राजीव गोस्वामी भी थे राजीव ने कभी-कभी मनोज की फिल्मों में छोटी मदद की ।

लेकिन वह ज्यादा चर्चा में नहीं रहे उनके बच्चों ने भी फिल्मों से दूरी बनाई और अपनी जिंदगी में मशगूल रहे मनोज की जिंदगी में उनकी पत्नी और बच्चे ही उनका सबसे बड़ा सहारा थे कुछ अफवाहें उड़ी कि उनकी दूसरी शादी हुई थी लेकिन यह सच नहीं था शशि ही उनकी जिंदगी की एकमात्र हमसफर रही आखिरी दिनों में मनोज मुंबई में अपने परिवार के साथ रहते थे वह फिल्मों से दूर हो चुके थे लेकिन देशभक्ति का जज्बा उनके दिल में जिंदा था वो अक्सर अपने पुराने दिनों को याद करते उनके घर में एक छोटा सा कमरा था जहां उनकी फिल्मों के पोस्टर और अवार्ड सजे थे वह अपने नाती पोतियों के साथ वक्त बिताते उन्हें भगत सिंह और गांधी की कहानियां सुनाते लेकिन उम्र ने उनके शरीर को कमजोर कर दिया था।

2024 के अंत में उनकी तबीयत बिगड़ने लगी सांस लेने में तकलीफ थकान और कमजोरी ने उन्हें जकड़ लिया जनवरी 2025 में उन्हें कोकिलाबेन अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा डॉक्टरों ने बताया कि उनकी उम्र और पुरानी बीमारियों ने हालत नाजुक कर दी थी फिर वो दिन आया 4 अप्रैल 2025 सुबह के 3:00 बजे के करीब शशि उनके बिस्तर के पास बैठी थी मनोज ने धीरे से उनकी ओर देखा मुस्कुराया और फिर हमेशा के लिए सो गए।

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