क्यों रेफयुज़ी कैंप में छुपकर रहना पड़ा था मनोज कुमार को !

एक ऐसा इंसान जिसने पर्दे पर कभी हल उठाया कभी बंदूक कभी भारत मां के बेटे के रूप में लड़ता देखा तो कभी देश के लिए जीता हुआ एक आम किसान 87 साल की उम्र में वह चला गया लेकिन जाते-जाते भी भारत कुमार नामक एक अमर छवि को अमरता दे गया अब सवाल यह उठता है क्या मनोज कुमार सिर्फ एक नाम थे नहीं साहब बिल्कुल नहीं वो नाम नहीं वो एक पूरा दौर थे एक ऐसा दौर जब सिनेमा सिर्फ मनोरंजन नहीं होता था बल्कि लोगों के जेहन में सवाल खड़े करता था दिल में देश के लिए कुछ करने की आग भर देता था मनोज कुमार सिर्फ एक अभिनेता नहीं थे वो एक भावना थी वो भावना जो पर्दे से निकलकर दर्शकों की नसों में बहती थी उनकी फिल्मों की खुशबू में वह मिट्टी होती थी जिसे किसान जोतता था जिसे जवान अपने जूतों में लेकर सरहद पार करता था और जिसे अपने मां आंचल में भरकर अपने बच्चे को सुलाती है।

मनोज कुमार वो आईना थी जिसमें हिंदुस्तान अपने आप को देखता था अपने गांव अपनी भाषा अपनी संस्कृति और अपनी उनकी कहानियां महज स्क्रिप्ट नहीं थी वो अपने वक्त की दस्तावेज थी तो जब हम कहते हैं कि वो चला गया तो असल में वो एक युग चला गया लेकिन उसकी परछाई आज भी हर उस फिल्म में दिखती है जहां कोई कहता है मेरे देश की धरती या फिर जहां एक किसान हल उठाता है और सिपाही बंदूक मनोज कुमार एक विचारधारा थी।

एक ऐसी विचारधारा जो हमें बताती है कि देश से प्यार सिर्फ तिरंगे लहराने से नहीं होता बल्कि अपनी जमीन अपने लोगों और अपनी भाषा से जुड़कर होता है और यही था वह जादू जो सिर्फ मनोज कुमार के पास था एक ऐसा जादू जो आज भी जिंदा है पर्दे पर भी और हमारे दिलों में भी जरा सोचिए एक छोटा सा लड़का मुश्किल से 10 साल का जेब में कोई खिलौना नहीं हाथ में कोई मिठाई नहीं बस उसकी आंखें किसी चीज को बेतहाशा ढूंढ रही हैं कंचों की डिब्बी हरि कृष्ण गिरी गोस्वामी नाम तो आम सा लगता है ना लेकिन यही आम सा नाम आगे चलकर भारत कुमार कहलाया अब जरा मेरे साथ एबटा की उन गलियों में चलिए जहां वो छोटा सा बच्चा कभी खुशी-खुशी कंचे खेलता था वो रंग बिरंगे कंचे जिनमें उसकी मासूमियत उसका बचपन और उसका सपना कैद था लेकिन फिर इतिहास ने एक करवट ली।

साल था 1947 देश आजाद तो हुआ लेकिन दो टुकड़ों में बटंट गया और उस बंटवारे की चिंगारी सीधे उस बच्चे की झोली में आ गिरी उसे समझ नहीं आया कि उसका क्या कसूर था ना धर्म की समझ थी ना राजनीति की उसे तो बस अपनी कंचों की डिब्बी चाहिए थी जो एटाबाद की किसी गली में पीछे छूट गई उस डिब्बी के साथ-साथ उसका बचपन भी छूट गया हर कृष्ण का परिवार सब कुछ छोड़कर भागा जान बचाने के लिए और पहुंचा दिल्ली के बाहरी इलाके में एक रिफ्यूजी कैंप में छत नहीं थी सिर्फ आसमान था चार दीवारें नहीं थी सिर्फ दूसरों की परछाइयां थी और थालियों में खाना नहीं था बस भूख थी लंबी चुभती हुई भूख अब बताइए ऐसे हालात में कोई बच्चा क्या सपना देखता लेकिन यही तो कहानी का जादू है जहां बाकी बच्चे बच्चे डर में सिमट जाते हैं वहीं हर कृष्ण नाम का यह लड़का मनोज कुमार बनने की ज़िद पकड़ लेता है और इस जिद की शुरुआत होती है इन्हीं अधूरे कंचों से जो छोटे जरूर थे ।

लेकिन उन्हीं ने एक ऐसा हीरो बना दिया जिसने पूरी जिंदगी देश की मिट्टी को पर्दे पर चमकाया यही था मनोज कुमार बनने का बीज एक टूटे हुए बचपन से निकली वो जड़ जिसने आगे चलकर हिंदुस्तान के सबसे बड़े देशभक्त अभिनेता को जन्म दिया आनंद हो दिल्ली की सर्दियों में हल्के गुलाबी ठंड थी सिनेमा हॉल के बाहर चाय वाले के स्टॉल से भाप उठ रही थी और एक 10 11 साल का बच्चा जिसका नाम हर कृष्ण अपने मामा का हाथ थामे टिकट की लाइन में खड़ा था मामा बोले आज एक बड़ी फिल्म दिखाऊंगा दिलीप कुमार की जुगनू हरे कृष्ण की आंखें चमक उठी पोस्टर पर एक सुंदर सा नौजवान छरहरा बदन गहरी आंखें दिलीप कुमार बच्चे ने पूछा यह कौन है मामा मुस्कुराई हीरो है फिल्म शुरू हुई और हर कृष्ण की आंखें स्क्रीन पर चिपक गई हर सीन में वो खुद को उस हीरो में देखने लगा कभी हंसता कभी डरता कभी ताली बजाता लेकिन लेकिन जैसे ही फिल्म का आखिरी सीन आया हीरो मर गया बस वहीं कुछ टूट गया थिएटर से निकलते वक्त हर कृष्ण का चेहरा उतरा हुआ था उसने पूछा अगर हीरो मर गया तो फिर अगले पोस्टर में जिंदा कैसे दिख रहा है यह सवाल सुनने में भोला लग सकता है लेकिन उस मासूम सवाल ने उसके अंदर कुछ जगा दिया एक सपना वो सपना जो उस रात उसके तकिए के नीचे नहीं बल्कि उसकी आत्मा में दबकर पनपने लगा वह सोचने लगा अगर हीरो मरकर भी जिंदा हो सकता है तो मैं भी हीरो बन सकता हूं मैं भी लोगों की जिंदगी का हिस्सा बन सकता हूं मैं भी ऐसा कुछ कर सकता हूं जो अमर हो कुछ दिन बाद मामा फिर एक फिल्म दिखाने ले गई शबनम वो बच्चा जिसने जुगनू में दर्द पाया था उसने शबनम में एक नई रोशनी देखी ।

थिएटर में गया तो था हरिकृष्ण बनकर लेकिन जब बाहर निकला तो वह मनोज कुमार बन चुका था और यहीं से शुरू हुई एक ऐसी कहानी जो सिर्फ बॉलीवुड की नहीं बल्कि भारत की आत्मा की कहानी बन गई दुनिया एक नंबरी तो मैं 10 नंबरी अब जरा उस दोपहर को अपने ज़हन में लाइए कॉलेज की कैंटीन में चाय की प्याली रखी थी कुछ किताबें खुली थी और एक लड़का छोटा सा सीधा साधा लेकिन उसकी आंखों में किसी बड़े सपने की चुपचाप हलचल चल रही थी उसी वक्त पास में आकर एक आवाज गूंजी अरे तुम तो हीरो जैसे दिखते हो कहने वाला था उनका कजिन लेखराज भाकरी जो खुद फिल्म इंडस्ट्री में डायरेक्टर थे मनोज ने बिना एक पल की देर किए जवाब दिया हां हां तो फिर बना दो हीरो अब यह बात मजाक में कही गई थी या दिल से यह शायद उस वक्त किसी को समझ में नहीं आया लेकिन मनोज कुमार के दिल में उस दिन एक कंकड़ फेंका गया था और उस कंकड़ की लहरें फिर कभी थमी नहीं कुछ ही हफ्तों बाद वह सपना अब सिर्फ सपना नहीं रह गया था वह एक फैसला बन चुका था मुंबई जाना है हीरो बनना है लेकिन उससे पहले एक जरूरी पड़ाव बाकी था।

पिता का आशीर्वाद जब तुम्हारा हृदय तोड़ दे मनोज जो उस वक्त सिर्फ एक आम सा लड़का था अपने पिता के पास गया अब उस पल को सोचिए एक बेटा अपने सपनों का थैला लिए खड़ा है और पिता जो खुद अपनी जिंदगी के मैदान में तप चुका है बेटे को देखता है और सिर्फ एक वाक्य कहता है माय ब्लड कैन नेवर कमिट ब्लंडर्स ओनली मिस्टेक्स अब यह कोई फिल्मी डायलॉग नहीं था यह एक बाप का विश्वास था जो अपने बेटे के खून में बसा हुआ था एक ऐसा वाक्य जिसने मनोज कुमार के अंदर यह ठान दिया अब चाहे जो हो जाए मैं झुकूंगा नहीं हारूंगा नहीं यही वह वक्त था जब मनोज कुमार सिर्फ एक इंसान नहीं बल्कि एक मिशन बन गए और फिर शुरू हुआ सफर मुंबई की तरफ जिसमें जेब में किराया था दिल में हौसला था और कानों में गूंजती वो एक आवाज मेरे खून में कोई भूल नहीं होती बस कभी-कभी गलती हो सकती है अब यह बात जरा ध्यान से सुनिए क्योंकि ऐसे इरादे हर किसी के नहीं होते जब लोग फिल्मों में आने का सपना देखते हैं तो अक्सर उनकी आंखों में चमचमाती कारें बड़े-बड़े बंगले और पब्लिसिटी की झलक होती है लेकिन मनोज कुमार उनके सपने में ना गाड़ियों की चमक थी ना रेड कारपेट का लाल रंग उनकी आंखों में जो सपना था वह बहुत सादा लेकिन बहुत कीमती था।

उन्होंने खुद कहा था मुझे शहरत नहीं चाहिए थी मैं तो बस ₹ लाख कमाना चाहता था अब आप सोच रहे होंगे बस 3 लाख हां बस उतना ही और वह भी इस तरह बांटना चाहती थी 1 लाख मां-बाप के लिए ताकि जिन्होंने उन्हें जिंदगी दी उन्हें कभी किसी चीज की कमी ना हो 1 लाख अपने भाई बहनों के लिए ताकि उनके भविष्य की नींव मजबूत हो और 1 लाख खुद के लिए शायद एक छोटा घर कुछ किताबें और कुछ एक सुकून भरी जिंदगी यह थी उस इंसान की सोच जो उस दौर में फिल्म इंडस्ट्री में कदम रख रहा था जहां लोग नाम कमाने आते थे यह सिर्फ अपनों के लिए कुछ करने आया था लेकिन दोस्तों जब नियत साफ हो इरादे नेक हो तो किस्मत भी झुक जाती है कुदरत को मनोज कुमार से सिर्फ 3 लाख का सौदा मंजूर नहीं था उसे तो उससे करोड़ों दिल जीतने वाला एक पूरी पीढ़ी को देशभक्ति सिखाने वाला इंसान बनाना था वह कहते हैं ना अगर आप सच्चे दिल से कुछ अच्छा सोें तो पूरी कायनात उसे हकीकत में बदलने लगती है।

मनोज कुमार की सादगी ही उनका रुतबा बन गई और यही वजह है कि आज भी जब हम उनकी बातें करते हैं तो सिर खुद ब खुद झुक जाता है अब जरा उस दौर को अपनी आंखों के सामने लाइए साल था 1964 सिनेमा हॉलों के बाहर लंबी लाइनें लगती थी टिकट ब्लैक में बिकते थे और पर्दे पर जो दिखता था वह सिर्फ एक्टिंग नहीं जादू होता था और ऐसे ही जादू से भरी एक फिल्म आई वो कौन थी साधना की रहस्यमई आंखें और मनोज कुमार की शांत लेकिन सवालों से भरी निगाहें जैसे पर्दे पर सस्पेंस और मासूमियत का खूबसूरत टकराव हो लेकिन जो चीज अमर हो गई वो था उस फिल्म का एक गाना लग जा गले कि फिर ये हंसी रात हो ना हो अब जरा सोचिए ये गाना कोई सामान्य गीत नहीं था ये एक एहसास था एक पल था जो जैसे वक्त की उंगलियों के बीच से फिसलने वाला था भर के देखिए हमको हर बार जब यह गीत बजता था तो लगता था मानो कोई अधूरी मोहब्बत हमसे कुछ कह रही हो और इसी फिल्म के साथ मनोज कुमार सिर्फ एक एक्टर नहीं रह गए थे वो बन गए उस चेहरे की पहचान जो कहानियों को अपनी आंखों से जीता था ऐसी कहानियां जोर से चिल्लाकर नहीं कहती थी बल्कि धीरे से दिल में उतरती थी और वहीं बस जाती थी उनका अभिनय चीखता नहीं था वो तो जैसे धीरे से आपके कंधे पर हाथ रखता था और कहता था चलो यह कहानी साथ सुनते हैं वो कौन थे के बाद लोगों ने महसूस किया कि यह हीरो सिर्फ रोमांस करने नहीं आया यह अपने किरदारों में रूह डालने आया है और जब किसी कलाकार की मौजूदगी कहानी को कहानी से अनुभव बना दे तो समझ लीजिए कि सिनेमा को उसका असली साधक मिल चुका है।

अब चलिए आपको लेकर चलते हैं साल 1965 में एक ऐसा साल जब भारतीय सिनेमा सिर्फ फिल्में नहीं बना रहा था वो इतिहास के पन्नों से धूल झाड़कर उन्हें पर्दे पर सजीव कर रहा था और इसी साल रिलीज हुई एक फिल्म शहीद अब आप सोचेंगे यह भी एक देशभक्ति वाली फिल्म रही होगी लेकिन नहीं दोस्तों यह सिर्फ एक फिल्म नहीं थी एक चिंगारी थी और इस चिंगारी में ईंधन बनकर खुद को झोंक दिया मनोज कुमार ने फिल्म में वह भगत सिंह बने पर यह रोल कोई आम किरदार नहीं था यह तो जैसे किसी ऋषि ने अपनी साधना में बैठकर किया हो मनोज ने इस फिल्म के लिए 4 साल तक रिसर्च की किताबें पढ़ी पुराने अखबारों की फाइलें खंगाली भगत सिंह के लेख उनके खत और उनके विचारों में डूब गए और तब उन्होंने भगत सिंह का किरदार निभाया तो वो सिर्फ कपड़े पहनकर बालों में तेल लगाकर कैमरे के सामने नहीं खड़े हुए वो उस किरदार में घुल गए और जैसे भगत सिंह खुद लौट आए हो ए वतन ए वतन ऐ वतन ऐ वतन हम तो तेरी कसम तेरी राहों में मेरा रंग दे बसंती चोला यह गाने आज भी जब गानों में बजते हैं तो रगों में कुछ दौड़ने लगता है खून नहीं बल्कि एक जज्बा जिसे शहीद ने पैदा किया मनोज कुमार के अभिनय और लेखनी ने फिल्म को वो आत्मा दी जिसने दर्शकों को रोने पर मजबूर कर दिया और गर्व से सीना चौड़ा कर दिया और यह सिर्फ ऑडियंस का प्यार नहीं था बल्कि एक मां की मोहर भी थी भगत सिंह की असली मां विद्यावती जी जब उन्होंने फिल्म देखी तो उनके लबों से सिर्फ एक ही बात निकली तू तो मेरा बेटा है अब जरा सोचिए इससे बड़ी उपलब्धि किसी कलाकार के लिए क्या हो सकती है और यह वही फिल्म थी जिसने हिंदी सिनेमा के इतिहास में पहली बार किसी अभिनेता को राइटिंग के लिए नेशनल अवार्ड दिलाया यानी मनोज कुमार ने सिर्फ किरदार नहीं निभाया बल्कि इतिहास की एक गूंज को पर्दे पर जिंदा किया।

अब जरा उस दृश्य की कल्पना कीजिए एक शांत सादा लेकिन दूरदर्शी नेता लाल बहादुर शास्त्री और सामने बैठा एक संवेदनशील कलाकार मनोज कुमार कभी-कभी कुछ बातें बड़ी हल्की आवाज में कही जाती हैं लेकिन उनका असर पीढ़ियों तक गूंजता है शास्त्री जी ने मुस्कुराकर कहा मनोज जी एक फिल्म बनाइए जय जवान जय किसान बस इतना ही कहा ना कोई लंबी मीटिंग ना स्क्रिप्ट डिस्कशन ना फंडिंग की बात सिर्फ एक वाक्य लेकिन वो वाक्य मनोज कुमार के दिल में जैसे आग बनकर उतर गया और उस आग से जलकर निकली एक कहानी एक फिल्म और एक विचारधारा मनोज ट्रेन में चढ़े बैग में सिर्फ दो चीजें थी एक डायरी और एक पेन ना कोई लैपटॉप ना कोई टीम ना कोई राइटर और जब तक वो ट्रेन मुंबई पहुंची उपकार की पूरी कहानी उस डायरी में उतर चुकी थी हर सीन हर संवाद हर भाव जैसे उस सफर में खुद ब खुद उनकी आत्मा से कागज पर बहता चला गया और फिर बनी उपकार एक ऐसी फिल्म जिसने सिर्फ सिनेमाघरों के टिकट नहीं बिकवाए बल्कि देश के हर नागरिक को उसकी जड़ों से जोड़ दिया ।

कहानी एक ऐसे इंसान की थी जो बंदूक भी चलाता है और खेत भी जोतता है जो जंग भी लड़ता है और हल भी उठाता है और यहीं से जन्म हुआ उस किरदार का जिसे आने वाले सालों में सिनेमा ने एक नाम दिया भारत कुमार मनोज कुमार अब सिर्फ एक अभिनेता नहीं थे वह भारत की आवाज बन चुकी थी पर्दे पर जब वह बोलते तो लगता था कि कोई देश बोल रहा है और यह सब शुरू हुआ था सिर्फ एक वाक्य से जय जवान जय किसान पर फिल्म बनाइए ऐसी बातों में ही इतिहास लिखा जाता है तो अब जरा रुकिए और सोचिए आप सिनेमा हॉल में बैठे हैं पर्दे पर एक नौजवान दिखाई देता है सिर पर पगड़ी हाथ में हल और कभी-कभी जरूरत पड़े तो हाथ में बंदूक भी उसकी आंखों में ना तो सिर्फ प्रेम होता है ना सिर्फ आक्रोश बल्कि देश के लिए कुछ करने की आग होती है वह मनोज कुमार थे।

लेकिन पर्दे पर लोग उन्हें सिर्फ मनोज नहीं भारत कहने लगे थे क्योंकि उन्होंने अपने किरदारों को सिर्फ निभाया नहीं जिया वह किसान बनते तो धरती की मिट्टी उनके हाथों में महसूस होती थी वह फौजी बनते तो बंदूक की ट्रिगर में सिर्फ गोली नहीं देश की उम्मीदें छुपी होती और जब वो गाते मेरे देश की धरती सोना उगले तो थिएटर में बैठा हर दर्शक चाहे शहर का हो या गांव का उसके गले में एक गांठ बन जाती आंखें भीग जाती और दिल किसी अनदेखी जिम्मेदारी से भर जाता क्यों क्योंकि मनोज कुमार अब सिर्फ एक अभिनेता नहीं थे वो एक भावना थी एक ऐसी भावना जो पॉपकॉर्न नहीं मांगती थी बल्कि आत्मा को छू जाती थी अब बात करें उनकी फिल्मों की पूरब और पश्चिम रोटी कपड़ा और मकान तो यह फिल्में महज स्क्रिप्ट से बनी कहानियां नहीं थी यह तो जैसे एक-एक सामाजिक समस्या पर चोट करती हुई ललकारें थी गरीबी बेरोजगारी पाश्चात्य संस्कृति से टकराव हर मुद्दे को मनोज कुमार ने अपने सिनेमा के जरिए उठाया उनकी फिल्में टाइम पास नहीं होती थी वो समय की कसौटी पर खरी उतरने वाली क्रांतियां थी हर एक फिल्म एक मिशन थी एक मकसद था उसके पीछे लोगों को सिर्फ हंसाना नहीं जगाना था।

मनोज कुमार के सिनेमा में हीरो रोमांस भी करता था लेकिन आंखों में राष्ट्रभक्त की चमक के साथ वो एक ऐसा कलाकार था जो मनोरंजन की आड़ में समाज को आईना दिखा जाता था और शायद इसीलिए आज भी जब देशभक्ति पर कोई फिल्म बनती है तो सबसे पहले एक नाम जेहन में आता है मनोज कुमार अब जरा हम आपको लेकर चलते हैं साल 1981 में सिनेमा के वो सुनहरे दिन जब एक फिल्म बनना मतलब सिर्फ स्क्रीन पर कुछ चलना नहीं था बल्कि वह एक सामाजिक घटना हुआ करती थी और ऐसे ही वक्त में आई एक भव्य फिल्म क्रांति इस फिल्म के पीछे एक ऐसा नाम था जो अब तक देशभक्ति का पर्याय बन चुका था मनोज कुमार लेकिन इस बार वह सिर्फ पर्दे पर नहीं थे पीछे कैमरे के भी कप्तान वही थे डायरेक्टर की कुर्सी पर भी वही बैठे थे।

अब सोचिए मनोज कुमार के लिए यह फिल्म कितनी खास रही होगी क्योंकि इसमें उन्होंने एक ऐसा चेहरा वापस लाया जो उस वक्त लगभग फिल्मों से दूरी बना चुका था दिलीप कुमार जी हां वही दिलीप कुमार जिनके एक पोस्टर ने एक दिन हर कृष्ण गिरी गोस्वामी को मनोज कुमार बना दिया था अब उस हीरो को खुद की फिल्मों में वापस लाकर उसे एक नई पारी देना यह कोई मामूली बात नहीं थी तो हम उसे घेरे रखता है हां एक जोकर है जो जहां है जैसा है खुश है लेकिन क्रांति की कहानी पर्दे पर जितनी दिलचस्प थी उसकी बिहाइंड द सीन स्क्रिप्ट भी कम फिल्मी नहीं थी कहते हैं फिल्म की शूटिंग के दौरान परवीन भाभी से मनोज कुमार की काफी अनबन हो गई थी उनकी लेट लतीफी या शायद व्यवहार मनोज को इतना परेशान कर गया कि उन्होंने गुस्से में उनका किरदार ही छोटा कर दिया बल्कि पूरी तरह खत्म ही कर दिया अब यह मनोज कुमार का परफेक्शन था या जिद इस पर राय बंटी हुई है।

लेकिन एक बात तय है वह फिल्म के हर फ्रेम पर अपना नियंत्रण रखते थे उन्हें सिर्फ कहानी नहीं हर भाव हर दृश्य हर संवाद पर पकड़ चाहिए थी फिल्म पूरी हुई रिलीज भी हुई क्रिटिक्स ने नागभूस सिकोड़ ली कुछ ने कहा बहुत लंबी है कुछ बोले थोड़ी मेलो ड्रामा ज्यादा है लेकिन जनाब जब आम जनता ने फिल्म देखी तो उन्हें ना लंबाई से दिक्कत थी ना मेलो ड्रामा से थिएटर हाउसफुल होने लगे लोग ताली बजाते थे सीटी मारते थे और क्रांति को अपने दिलों पर बिठा लिया क्योंकि मनोज कुमार की यह फिल्म सिर्फ एक कहानी नहीं थी यह था आजादी का एहसास एक बार फिर पर्दे पर भारत के गौरव को जीवंत करने की कोशिश और यही तो कमाल था।

मनोज कुमार का वह जो कहानियां बनाते थे वह सिनेमा नहीं आंदोलन बन जाती थी अब जरा सोचिए एक शख्स जिसने पूरी जिंदगी अपने सिद्धांतों के साथ जी जिसने सिनेमा को सिर्फ ग्लैमर नहीं बल्कि संस्कार और संवेदना दिया अगर ऐसा इंसान नाराज हो जाए तो समझ लीजिए कि बात सिर्फ नाराजगी की नहीं बल्कि आत्मसम्मान के ठेस की है मनोज कुमार का गुस्सा यूं तो कभी आसानी से नहीं उबलता था लेकिन साल 2007 में कुछ ऐसा हुआ जिसने इस शांतचित अभिनेता और निर्देशक को कानून का दरवाजा खटखटाने पर मजबूर कर दिया फिल्म थी ओम शांति ओम शाहरुख खान की स्टार पावर से भरी ग्लैमर से लिपटी एक मस्ती भरी कहानी लेकिन इस मस्ती में एक सीन ऐसा भी था जहां शाहरुख का किरदार मनोज कुमार की नकल करता हुआ सिनेमा हॉल में घुसने की कोशिश करता है मिमिक्री चश्मा झुकी चाल और फिर गार्ड उसे धक्का देकर बाहर निकाल देता है अब हो सकता है कि यह सीन किसी के लिए हास्य रहा हो पर मनोज कुमार के लिए यह अपमान से कम नहीं था उन्होंने कहा जिस इंसान ने देश को उसकी परंपरा को उसके सैनिकों और किसानों को पर्दे पर गर्व से पेश किया उसका मजाक उड़ाना यह कहां की कला है और बस मनोज कुमार ने 100 करोड़ की मानहानि का मुकदमा ठोक दिया सुनकर पूरी फिल्म इंडस्ट्री चौंक गई क्योंकि यह कोई आम लड़ाई नहीं थी।

यह सम्मान और पीढ़ियों के बीच के फर्क की लड़ाई थी बाद में शाहरुख को भी अपनी गलती का एहसास हुआ वह खुद हाथ जोड़कर मनोज कुमार के घर पहुंचे माफी मांगी बात की समझाया और आखिरकार मामला कोर्ट के बाहर सुलझ गया लेकिन इस घटना ने एक बात साफ कर दी मनोज कुमार कभी विवादों के पीछे नहीं भागे लेकिन अगर उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुंची तो वह चुप भी नहीं बैठे क्योंकि उन्होंने सिर्फ सिनेमा नहीं जिया था उन्होंने एक विचारधारा को एक संस्कृति को और एक राष्ट्र को अपने पर्दे पर सजाया था और उसके मजाक का जवाब वह हमेशा संविधान के रास्ते ही देते थे अब जरा ठहरिए और सोचिए उस इंसान के बारे में जो पर्दे पर तो हीरो था लेकिन असल जिंदगी में एक सच्चा फकीर मनोज कुमार ना कभी मीडिया में शोर मचाया ना अवार्ड शोज़ में कैमरे के सामने आकर बड़ी-बड़ी बातें की उन्होंने कभी अपनी शोहरत का ढिंढोरा नहीं पीटा क्योंकि उनके लिए सिनेमा सिर्फ एक पेशा नहीं था वह तो एक साधना था जो उन्होंने झोली फैलाकर नहीं बल्कि दर्द संघर्ष और सिद्धांतों की स्याही से लिखा था उनकी फिल्में देखी हर सीन हर संवाद ऐसा लगता है जैसे वह कह रहा हो मैंने यह खुद जिया है कभी रिफ्यूजी कैंप की तंगी कभी मां-बाप के लिए कुछ कर गुजरने की बेचैनी कभी जमाने की नाइंसाफी इन सबको इन्होंने डायरी में नहीं फिल्मों में कैद किया और काम अरे जनाब वो सिर्फ हीरो नहीं थे ।

वो एक्टिंग करते थे डायरेक्शन करते थे डायलॉग खुद लिखते थे और जरूरत पड़ी तो गाने भी रच देते थे वो एक-एक फ्रेम में अपनी रूह डालते थे और उन्हें दूसरों से कहने की जरूरत नहीं पड़ती थी कि देखो मैं कितना बड़ा कलाकार हूं क्योंकि उनकी फिल्में खुद चिल्लाकर कहती थी यह काम कोई आम इंसान का नहीं एक सोच का है एक मिशन का है आज के जमाने में जहां स्टारडम Instagram पर बनता है मनोज कुमार वो दौर थे जहां स्टारडम लोगों की आंखों में आंसू और दिल में गर्व जगाकर कमाया जाता था अगर आपको सिनेमा के पर्दे के पीछे का असली कलाकार देखना हो तो मनोज कुमार को देखिए जो मंच पर खड़ा नहीं होता था

लेकिन हर फ्रेम में हर भाव में हर शब्द में खड़ा रहता था 4 अप्रैल की सुबह वह चले गए लेकिन उनके किरदार उनके संवाद और वह झुकी आंखों वाला हीरो हमेशा के लिए रह गया मनोज कुमार चले गए लेकिन भारत कुमार अमर हो गया अगर यह कहानी आपको दिल से छू गई हो तो एक लाइक तो बनता है यार कमेंट करके बताओ आपकी मनपसंद मनोज कुमार की फिल्म कौन सी है और हां अगर अगली बार जब किसी से देशभक्ति की बात हो तो उन्हें मनोज कुमार की कोई फिल्म जरूर दिखा देना।

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