जानिए मनोज कुमार के शुरुआती गांव और घर के बारे में सबकुछ

कभी किसी ने सोचा भी नहीं था कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब देशभक्ति के सबसे बड़े प्रतीक बॉलीवुड के भारत कुमार यानी मनोज कुमार हमारे बीच नहीं रहेंगे आज यह खबर आई कि मनोज कुमार नहीं रहे तो जैसे पूरे देश की आंखें भीग गई वह सिर्फ एक अभिनेता नहीं थे वह एक भावना थे एक विचार थे और सबसे बढ़कर वह इस देश की मिट्टी की खुशबू थे लेकिन क्या आप जानते हैं इस देशभक्त अभिनेता की जड़े कहां थी उनका बचपन कहां बीता और वह कौन सा गांव था जहां से एक महान कलाकार का सफर शुरू हुआ था चलिए आज मनोज कुमार की कहानी को उसी गांव से शुरू करते हैं जहां उनका जन्म हुआ था उस मिट्टी की कहानी जहां मनोज पैदा हुए शायद फिर से जन्म अब जरा अपनी आंखें बंद कीजिए और चलिए मेरे साथ एक सफर पर उस दौर में जब देश अभी तक आजाद नहीं हुआ था और हवाओं में भी अंग्रेजी हुकूमत की सख्ती घुल रही थी.

साल था 1987 और जगह एटाबाद हां वही एटाबाद जो आज पाकिस्तान के खैबर पख्तून ख्वा प्रांत में आता है लेकिन तब तब वह ब्रिटिश इंडिया का हिस्सा हुआ करता था हिमालय की गोद में बसा यह छोटा सा पहाड़ी कस्बा अपनी ठंडी वादियों सादगी और शांत माहौल के लिए जाना जाता था इन्हीं पहाड़ों की ठंडी हवाओं के बीच एक दिन किलकारी गूंजती है एक बच्चा जन्म लेता है नाम रखा जाता है हर कृष्ण गिरी गोस्वामी अब सुनने में तो यह नाम साधारण सा लगता है लेकिन किसे पता था कि यही बच्चा आगे चलकर भारत के दिलों की धड़कन बनेगा यही बच्चा एक दिन रुपहले पर्दे पर ऐसा जलवा बिखेरेगा कि लोग उसे सिर्फ एक नाम से याद रखेंगे भारत कुमार जी हां यही था मनोज कुमार का असली नाम अब जरा उस दौर की तस्वीर अपने जेहन में लाइए ना कोई मोबाइल ना टीवी बस एक रेडियो जो कभी कबभार किसी पड़ोस के घर से आवाज करता एक साधारण परिवार जहां हर सुबह मेहनत से शुरू होती और रात उम्मीदों पर खत्म मनोज यानी हरे कृष्ण का बचपन भी कुछ ऐसा ही था सीधा सच्चा और संघर्षों से भरा उनके पिता एक ईमानदार संस्कारी और मेहनतकश इंसान थे अक्सर शाम को जब बच्चे इकट्ठा होते तो वह एक ही बात दोहराते सच्चाई मेहनत और ईमानदारी यही तीन चीजें हैं जो इंसान को ऊंचाई तक ले जाती हैं .

बाकी सब दिखावा है बेटा मनोज उन बातों को सिर्फ सुनते नहीं थे उन्हें अपने दिल में उतारते थे शायद यही वजह थी कि आगे चलकर वह अपने किरदारों में भी सिर्फ अभिनय नहीं करते थे वह जीते थे उन्हें वो किरदार जो आम आदमी की सच्चाई उसकी तकलीफ और उसकी उम्मीदों की आवाज बन जाती थी कहे हैं जैसे हमें जानते नहीं लेकिन जिंदगी कभी सीधी नहीं चलती वो हादसा भी आना था जो सब कुछ बदल देने वाला था वो हादसा जिसने ना सिर्फ उनके बचपन की मासूमियत छीन ली बल्कि उनकी जिंदगी को एक नई दिशा में धकेल दिया क्या था वह हादसा कैसे बदली मनोज कुमार की दुनिया और कैसे एक सीधा साधा बच्चा बना भारत का सबसे बड़ा देशभक्त अभिनेता बंटवारा और बिखरता बचपन अब जरा सोचिए साल 1947 देश आजाद हुआ था.

लेकिन वह आजादी कोई जश्न नहीं बल्कि आंसू और बिछड़ने का तूफान लेकर आई थी जहां एक तरफ चारों ओर जय हिंद के नारे लग रहे थे वहीं दूसरी तरफ बंटवारे की आग लोगों के सीने फाड़ रही थी हजारों परिवारों को अपना सब कुछ छोड़कर सिर्फ जान बचानी थी और उन्हीं में से एक था हर कृष्ण गिरी गोस्वामी यानी हमारा मनोज कुमार एटाबाद की वह पहाड़ी वादियां वह कच्चे मकान वह गलियां जहां उनका बचपन खेला था सब पीछे छूट गया हर याद हर रिश्ता एक ही पल में लकीर के उस पार चला गया और उनका परिवार हाथ में बुस कुछ कपड़े कुछ जरूरी चीजें और दिल में अनगिनत सवाल लिए दिल्ली आ पहुंचा नया शहर नई जिंदगी लेकिन हालात वही पुराने दिल्ली में जिंदगी आसान नहीं थी.

मनोज कुमार का परिवार सालों तक किराए के छोटे-छोटे मकानों में घूमता रहा कभी एक मोहल्ला तो कभी दूसरा कभी पानी नहीं आता था तो कभी छत टपकती थी पर इन सबके बीच में एक चीज कभी नहीं टूटी मनोज के सपनों की चमक क्योंकि मनोज एक अलग मिट्टी के बने थे उनके अंदर बचपन से ही कुछ खास था सिनेमा का जुनून वो घंटोंघंटों थिएटर के बाहर खड़े रहते पोस्टर निहारते और जब कभी दिलीप कुमार की फिल्म लगती तो जैसे उनकी दुनिया ही बदल जाती वह सिर्फ फिल्में नहीं देखते थे वह हर किरदार को महसूस करते थे हर डायलॉग को दिल में उतार लेते थे कभी शीशे के सामने खड़े होकर डायलॉग दोहराते कभी किसी कोने में छिपकर खुद ही अपने अभिनय की दुनिया बसा लेते सुन सुन क्या कहे ये तुमसे सुन सुन एक तारा बोले सुन उनकी आंखों में सिर्फ एक ख्वाब था एक दिन मैं भी पर्दे पर दिखूंगा लोग मेरी भी एक्टिंग के कायल होंगे और मुझे भी कोई भारत कुमार कहेगा पर यह ख्वाब यूं ही नहीं पूरे होते इसके लिए कड़ी मेहनत संघर्ष और कभी ना हार मानने वाली हिम्मत चाहिए होती है और मनोज कुमार के पास यह सब था बस जरूरत थी एक मौके की एक सही मोड़ की जो उनके सपनों को हकीकत बना सके चलिए अब जरा आगे बढ़ते हैं कैसे मनोज दिल्ली की गलियों से निकलकर मुंबई के फिल्मी गलियारों तक पहुंचे और कैसे उन्होंने वह पहला कदम रखा जिसने उन्हें मनोज कुमार बना दिया नाम बदलना हर कृष्ण से मनोज कुमार तक कहते हैं ना कि किस्मत हमेशा मेहनती लोगों के साथ होती है जब मनोज कुमार पहली बार फिल्म इंडस्ट्री में घुसे तब उनका नाम था हर कृष्ण गोस्वामी.

लेकिन एक दिन उन्होंने दिलीप कुमार की फिल्म शबनम देखी जिसमें एक किरदार का नाम था मनोज बस यहीं से उन्होंने तय किया कि अब उनका नाम भी मनोज कुमार होगा और फिर शुरू हुई उस इंसान की जर्नी जो सिर्फ पर्दे पर ही नहीं लोगों के दिलों में भी बसने लगा संघर्षों से बना सितारा अब जरा सोचिए एक लड़का सिर्फ 20 साल का दिल्ली की तंग गलियों से सपनों का थैला उठाए मुंबई की ओर निकल पड़ता है साल था 1857 मन में जुनून था आंखों में चमक थी और दिल में सिर्फ एक नाम गूंज रहा था सिनेमा जी हां दोस्तों बात हो रही है मनोज कुमार की उसी मनोज कुमार की जो आगे चलकर भारत कुमार के नाम से हमारे दिलों में बस गए उस वक्त ना उनके पास कोई गॉड फादर था ना जान पहचान ना ही कोई बड़ा सरनेम सिर्फ एक चीज थी सपना और उसे पूरा करने की जिद मुंबई पहुंचे तो पहली झलक ही हकीकत से सामना करा गई कहते हैं ना सपनों का शहर जितना सुंदर लगता है उतना ही बेरहम भी होता है मनोज हर सुबह अपने जूते पहनते और निकल पड़ते स्टूडियोज प्रोड्यूसर्स के ऑफिस और कास्टिंग एजेंट्स के पीछेछे किसी ने कहा चेहरा चेहरा तो ठीक है पर हीरो वाला नहीं किसी ने बोला तुम्हारी आवाज भारी नहीं है कभी किसी के ऑफिस में चाय तक को तरस गए तो कभी सिर्फ अभी टाइम नहीं है यह सुनकर लौट आए.

लेकिन इन नाउदी की दीवार के बीच भी मनोज कुमार की उम्मीदों का दिया लगातार जलता रहा और फिर आखिरकार आया वो पहला मौका फिल्म फैशन 1957 अब यह मत सोचिए कि फिल्में हिट हो गई थी नहीं यह फिल्म ज्यादा नहीं चली बॉक्स ऑफिस पर कुछ खास कमाल नहीं दिखा पाई लेकिन असली कमाल यह था कि एक बार जो दरवाजा बंद था अब उसने थोड़ी सी झलक दिखा दी थी अब अंदर आने का रास्ता दिख गया था फिर जैसे वक्त ने करवट ली एक के बाद एक कुछ फिल्में आई जिनमें मनोज कुमार का हुनर लोगों को दिखने लगा कांच की गुड़िया जिसमें उनके चेहरे की मासूमियत ने ध्यान खींचा हरियाली और रास्ता जिसमें उनका रोमांटिक अंदाज पहली बार दर्शकों को पसंद आया और फिर आई वो कौन थी जिसने उन्हें एक अभिनेता नहीं एक रहस्यमई चेहरे के तौर पर पहचान दिला दी अब मनोज सिर्फ एक और संघर्षत एक्टर नहीं थे अब उन्हें लोग जानने लगे थे उनके नाम के पोस्टर छपने लगे थे और धीरे-धीरे वह अपनी मंजिल की ओर बढ़ने लगे थे कोई जब तुम्हारा हृदय तोड़ दे

कहानी अब दिलचस्प मोड़ लेने वाली थी शहीद से भारत कुमार तक 1965 में आई फिल्म शहीद भगत सिंह की जिंदगी पर बनी इस फिल्म में मनोज कुमार ने जो किरदार निभाया वह सीधे दिल में उतर गया इस फिल्म के बाद उन्हें देशभक्त अभिनेता की एक अलग पहचान मिलने लगी लेकिन 1967 में आया एक ऐसा मोड़ जिसने उनके नाम को अमर कर दिया फिल्म थी उपकार उपकार देशभक्ति की भावना का ज्वालामुखी जिस चोले को पहन शिवाजी खेले अपनी जान पे उपकार एक ऐसी फिल्म जो सिर्फ एक कहानी नहीं थी एक भावना थी जय जवान जय किसान लाल बहादुर शास्त्री का यह नारा जब मनोज कुमार ने पर्दे पर उतारा तो पूरा देश सैल्यूट करने लगा मनोज कुमार खुद इस फिल्म के निर्देशक लेखक और अभिनेता थे उन्होंने भारत नाम का किरदार निभाया और एक साधारण किसान लेकिन दिल में हिंदुस्तान इस फिल्म के बाद लोग उन्हें भारत कुमार कहकर बुलाने लगे यह एक नाम नहीं था यह सम्मान था वह सम्मान जो करोड़ों लोगों ने उन्हें दिल से दिया था पूरब और पश्चिम परंपरा और आधुनिकता की लड़ाई 1970 यह फिल्म एक सांस्कृतिक युद्ध थी जिसमें मनोज कुमार ने दिखाया कि भारतीयता क्या होती है जहां एक और पश्चिमी दुनिया आधुनिकता के नाम पर अपनी जड़ों से दूर जा रही थी.

वहीं मनोज कुमार ने पर्दे पर भारतीय संस्कृति की गरिमा को बनाए रखा उनका डायलॉग हिंदुस्तान को समझने के लिए हिंदुस्तानी होना पड़ता है आज भी लोगों के रोंगटे खड़े कर देता है क्रांति सबसे बड़ी देशभक्ति गाथा 1981 जब भारतीय सिनेमा में बदलाव का दौर शुरू हो चुका था उस समय मनोज कुमार लाई क्रांति इस फिल्म में दिलीप कुमार और मनोज कुमार एक साथ नजर आए एक ऐतिहासिक जुगलबंद थी क्रांति एक स्वतंत्रता संग्राम की महागाथा थी फिल्म ब्लॉकबस्टर रही और 80 के दशक की सबसे बड़ी हिट साबित हुई मनोज कुमार की छवि अब एक अभिनेता से कहीं ऊपर उठ चुकी थी वह अब भारत माता के पुत्र के रूप में देखे जाने लगे थे .

निर्देशन और लेखन में महारत जाने जीना तो उसी का तो अब जरा यहां रुकिए क्योंकि अब हम उस मोड़ पर आ पहुंचे हैं जहां मनोज कुमार सिर्फ एक अभिनेता नहीं बल्कि एक विचार एक आंदोलन और एक आवाज बन चुके थे जी हां मनोज कुमार सिर्फ उस दौर के एक रोमांटिक हीरो नहीं थे वह एक बेहद सटीक निर्देशक और बेहद संवेदनशील लेखक भी थे और यही बात उन्हें बाकियों से अलग बनाती थी उनकी फिल्मों में सिर्फ मनोरंजन नहीं होता था वहां एक मकसद छुपा होता था देश के लिए कुछ कहना कुछ बदलना कुछ दिखाना उनकी कहानियां संवाद और दृश्य सब में एक संदेश छुपा होता था वह कहते नहीं थे वह महसूस करवाते थे उनकी फिल्में मानो पर्दे पर चलती फिरती देशभक्ति की किताबें थी अब जरा उनकी कुछ फिल्मों को याद कीजिए रोटी कपड़ा और मकान यह कोई आम फिल्म नहीं थी यह फिल्म उस आम आदमी की चीख थी जो हर रोज दो वक्त की रोटी तन ढकने के लिए कपड़ा और सिर पर एक छत के लिए जूझता है इस फिल्म में बेरोजगारी गरीबी और सामाजिक असमानता जैसे मुद्दों को इतनी गहराई से दिखाया गया कि हर दर्शक को अपना दर्द नजर आने लगा और फिर आई क्रांति एक ऐसा सिनेमा जो सिर्फ फिल्म नहीं था बल्कि एक ज्वालामुखी था क्रांति ने दर्शकों के दिलों में आजादी की लड़ाई को दोबारा जिंदा कर दिया .

यह फिल्म साबित करती है कि जब मनोज कुमार कैमरा उठाते हैं तो वह सिर्फ किरदार नहीं गढ़ते वह विचार गढ़ते हैं लेकिन जब आप सच्चाई को दिखाने की कोशिश करते हैं तो टकराव तो होता ही है कई बार सेंसर बोर्ड को भी उनकी फिल्मों की सच्चाई चुभ गई कई सीन काटने की मांग हुई कई बार बहसें हुई कुछ फिल्में अटकाई भी गई पर मनोज कुमार झुके नहीं उन्होंने अपने उसूलों से कभी समझौता नहीं किया उनका मानना था अगर सिनेमा समाज को आईना नहीं दिखा सकता तो फिर वह सिर्फ चमकता हुआ झूठ है और यही वजह थी कि उन्होंने सिर्फ फिल्में नहीं बनाई उन्होंने एक सोच बनाई.

एक परंपरा बनाई जिसमें देश सबसे ऊपर था तो अब जब आप अगली बार मनोज कुमार की कोई फिल्म देखें तो सिर्फ कहानी मत देखिएगा उसमें छुपा दर्द संघर्ष और संदेश महसूस कीजिएगा क्योंकि वह सिर्फ पर्दे पर नहीं हमारी जिंदगी से जुड़े होते हैं निजी जीवन परिवार और रिश्ते चलिए अब जरा पर्दे से हटकर उस आदमी की निजी जिंदगी की ओर चलते हैं जिसने पर्दे पर भारत बनकर हम सबके दिलों में जगह बनाई लेकिन अपने घर में वह सिर्फ एक पिता एक पति और एक बेहद भावुक इंसान थे मनोज कुमार ने शादी की शशि गोस्वामी से शशि जो उनके जीवन की वह साथी बनी जिनके साथ उन्होंने हर ऊंचनीच हर सफर हर मोड़ को साझा किया ग्लैमर और चकाचौंध से दूर उनका रिश्ता सादगी से भरा था एक दूसरे की आंखों में भरोसा और साथ में चलने का वादा उनका एक बेटा है कुणाल गोस्वामी बेटे ने भी कोशिश की पिताजी की राह पर चलने की फिल्मों में कदम रखा कुछ किरदार निभाए.

लेकिन मनोज कुमार जैसी बुलंद पहचान बना पाना आसान नहीं था क्योंकि मनोज कुमार सिर्फ एक नाम नहीं एक युग थे कुणाल ने भी मेहनत की लेकिन कभी-कभी किस्मत उतनी मेहरबान नहीं होती जितनी हुनर पर होनी चाहिए पर मनोज कुमार ने कभी अपने बेटे को तुलना की नजर से नहीं देखा उनके लिए उनका परिवार सबसे ऊपर था चाहे वह पर्दे पर संस्कारों की बात करते हो या घर में बेटे को सीने से लगाकर प्यार देते हो उनकी जिंदगी की बुनियाद हमेशा पारिवारिक मूल्य ही रहे और यही बात उन्हें दूसरों से अलग बनाती है सोचिए एक इंसान जो करोड़ों दिलों का हीरो है जिसके पोस्टर हर शहर की दीवार पर चिपके हैं लेकिन फिर भी घर आकर सबसे पहले अपनी पत्नी से पूछता है खाना खाया क्या बेटे के माथे को चूम कर कहता है तू मेरा गर्व है मनोज कुमार का जीवन वहां की किसी फिल्मी स्क्रिप्ट से कम नहीं रहा होले साजना धीरेधीरे बाल मा हो जिसमें संघर्ष था जैसे किसी स्ट्रगलर का पहला दिन मुंबई में इमोशन था जैसे एक बेटे का अपनी मिट्टी के लिए प्रेम और क्लाइमेक्स वो वो अब भी लिखा जा रहा है हर बार जब कोई उनकी फिल्म देखता है और आंखें नम करता है तो वो कहानी फिर जिंदा हो जाती है तो दोस्तों ये थी मनोज कुमार की जिंदगी की एक और झलक अंतिम वर्ष एक चुपचाप होती जिंदगी मनोज कुमार का आखिरी दशक एकदम शांत रहा ना कोई फिल्म ना कोई बयान ना ही कोई पब्लिक अपीयरेंस वे अपनी पत्नी शशि और बेटे कुणाल के साथ मुंबई में रहते थे बीमारी ने उन्हें धीरे-धीरे अपनी गिरफ्त में ले लिया था हृदय संबंधी समस्याओं के कारण उनकी तबीयत अक्सर खराब रहने लगी.

लेकिन सबसे दर्दनाक बात यह थी जिस अभिनेता ने करोड़ों लोगों को देश से प्रेम करना सिखाया वो अपने अंतिम दिनों में गुमनामी की चादर ओढ़े रहे ना कोई खास सम्मान ना इंडस्ट्री से ढेरों फोन बस एक शांत और अकेली जिंदगी वो अंतिम सुबह जब भारत चुप हो गया 4 अप्रैल 2025 की सुबह समय था लगभग 3:30 बजे मुंबई के कोकिलाबेन धीरूबाई अंबानी अस्पताल में मनोज कुमार ने अंतिम सांस ली उनके बेटे कुणाल गोस्वामी ने यह दुखद खबर सबको दी पापा हम नहीं रहे वो आज तड़के हमें छोड़कर चले गए यह जैसे ही खबर बाहर आई सोशल मीडिया से लेकर न्यूज़ चैनल्स तक एक ही सवाल गूंजने लगा क्या भारत कुमार अब नहीं रहे देश भर से श्रद्धांजलियां आने लगी प्रधानमंत्री से लेकर अभिनेता अभिनेत्रियां हर किसी की आंखें नम थी अंतिम संस्कार विदाई भारत को 5 अप्रैल की सुबह जगह पवनहंस श्मशान भूमि विले पारले मनोज कुमार को अंतिम विदाई दी गई उनके पार्थिव शरीर को तिरंगे में लपेटा गया जैसे देश ने अपने सबसे बड़े सपूत को अंतिम बार सलामी दी हो बेटे कुणाल ने मुखाग्नि दी और साथ ही करोड़ों देशवासियों की यादें भी चिता के साथ धक उठी हर कोई यही कह रहा था भारत कुमार चला गया.

लेकिन उसकी आत्मा हमेशा भारत में जिंदा रहेगी अब बात उस गांव की जहां भारत कुमार ने पहली सांस ली थी बहुत कम लोग जानते हैं मनोज कुमार का जन्म पाकिस्तान के एबटा शहर में हुआ था साल 1837 वह भारत का हिस्सा हुआ करता था हिमालय की तलहटी में बसा एक छोटा सा इलाका शांत सुंदर और पहाड़ियों से घिरा यही उन्होंने पहली सांस ली थी उनका पैतृक घर मिट्टी का था सीमेंट का नहीं वह ईंटों से नहीं रिश्तों से बना था बचपन में पहाड़ी झरनों में खेलना गांव की गलियों में दौड़ना मां के साथ खेतों में जाना ये सब उनकी यादों में जिंदा रहा लेकिन 1947 के बंटवारी ने सब कुछ छीन लिया बंटवारे के बाद जब उनका परिवार दिल्ली शिफ्ट हुआ तब वह घर पीछे रह गया एटाबाद में आज वह घर पाकिस्तान में है.

लेकिन दिल में हमेशा भारत में ही रहा मनोज कुमार हमेशा कहते थे मेरा घर भले ही पाकिस्तान में हो लेकिन मेरी आत्मा हिंदुस्तान में रहती है विरासत जो रह जाएगी अमर अब जरा पल भर के लिए आंखें बंद कीजिए और सोचिए उस दौर को जब सिनेमा सिर्फ मनोरंजन नहीं था वह जज्बात था क्रांति की चिंगारी थी और उस दौर में एक नाम था मनोज कुमार लेकिन रुकिए मनोज कुमार ने सिर्फ फिल्में नहीं बनाई उन्होंने विचार गढ़े ऐसे विचार जो दिल में उतर जाएं सोच बदल दें और इंसान को भीतर से झकझोर कर रख दें उन्होंने सिखाया कि देश प्रेम सिर्फ तिरंगे में लिपटी भावुकता नहीं होती वो रोज जीने का तरीका होता है वो खेत में हलचलाते किसान के पसीने में होता है वो जवान की वर्दी में होता है और कभी-कभी एक निर्देशक की कहानी में भी अब आप खुद सोचिए उपकार जहां एक भाई सरहद पर लड़ने चला जाता है और दूसरा खेतों में अनाज उगाता है मनोज कुमार ने बताया कि जय जवान जय किसान सिर्फ नारा नहीं है बल्कि वह भारत की आत्मा है फिर आई शहीद भगत सिंह की भूमिका में जब उन्होंने पर्दे पर सरफरोशी की तमन्ना दोहराई तो जैसे सिनेमा हॉल में हर दिल धड़क उठा पूरब और पश्चिम जहां उन्होंने दिखाया कि अगर पाश्चात्य सभ्यता की चकाचौंध में अपना मूल भूल जाओ तो पहचान खो बैठते हैं और क्रांति जो आजादी की लड़ाई को सिर्फ इतिहास नहीं बल्कि वर्तमान बना देती है और कैसे भूल सकते हैं रोटी कपड़ा और मकान जिसमें उन्होंने कहा कि अगर इन तीन चीजों के लिए इंसान को लड़ना पड़े तो सिस्टम को सवालों का सामना करना ही होगा यह फिल्में सिर्फ पर्दे पर नहीं रही वह आंदोलन बन गई लोगों ने सिनेमा से बाहर निकलकर भी उन डायलॉग्स को अपने जीवन में जीना शुरू कर दिया.

आज जब कोई भारत माता की जय कहता है तो कहीं ना कहीं उस गूंज में मनोज कुमार की आवाज की छाप होती है वो आवाज जो पर्दे के पार चली गई लेकिन हमारे दिलों में हमेशा के लिए बस गई मनोज कुमार की फिल्में नहीं थी वह भावनाओं की किताबें थी हर फ्रेम में देश हर संवाद में संस्कार और हर क्लोजअप में एक संदेश और शायद इसीलिए वो सिर्फ भारत कुमार नहीं बने वह भारत के मन की आवाज बन गए आखिर वो दिन भी आया जब वो शख्स जो पर्दे पर हमें भारत बनकर जीता हुआ नजर आता था खुद चुपचाप बड़े सलीके से इस दुनिया से रुखसत हो गया मनोज कुमार चला गया लेकिन क्या वाकई चला गया नहीं उसकी परछाई आज भी हमारे गांव की दीवारों पर लटके पोस्टर्स में जिंदा है स्कूल के प्रार्थना में जहां बच्चे आज भी जय जवान जय किसान को दोहराते हैं और हर उस सैनिक के सीने में जो सरहद पर खड़ा होकर कहता है मां तेरे लिए जान हाजिर है जिसे तुमने भारत कुमार कहा वह कोई नाम नहीं था वह तो एक विचार था एक ऐसा विचार जो किताबों में नहीं लोगों के खून में बहता है जिसे गोली से मारा नहीं जा सकता जिसे वक्त भुला नहीं सकता और जिसे हम मरने नहीं देंगे और अब कहीं ऊपर वो आसमान के किसी कोने में मेरा रंग दे बसंती चोला गुनगुनाते हुए शायद भारत माता के चरणों में झुक गया होगा और एक आखिरी सलाम करते हुए कह रहा होगा भारत तुझे सलाम.

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