एक अभिनेता जिसके किरदार का नाम बार-बार भारत रखा गया जिसने पर्दे पर देशभक्ति की मिसाले गढ़ी जो हर बार तिरंगे के साथ खड़ा नजर आया अगर वही अभिनेता एक दिन हकीकत की जिंदगी में भारत की सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री के सामने खड़ा हो जाए तो क्या होगा यह कहानी उसी मनोज कुमार की है जिसे हम सब भारत कुमार के नाम से जानते हैं एक ऐसा इंसान जिसने फिल्मों से परे जाकर वास्तविकता में सत्ता को चुनौती दी यह कहानी सिर्फ एक फिल्म बैन होने की नहीं है यह कहानी है उस सच के आवाज की जिसे इमरजेंसी के दौर में कुचलने की कोशिश की गई.
साल था 1970 भारत एक नई दिशा में बढ़ रहा था इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थी लोकप्रियता चरम पर थी और उनका हर फैसला राष्ट्रहित में समझा जाता था मनोज कुमार तब तक हिंदी सिनेमा में देशभक्ति के पर्याय बन चुके थे इतनी ममता नदियों को भी जहां माता कह के बुलाते हैं उपकार पूरब और पश्चिम शहीद क्रांति हर फिल्म में उनका किरदार या तो सिपाही होता था या वो आम इंसान जो राष्ट्र को परिवार से ऊपर रखता था मनोज कुमार और इंदिरा गांधी के बीच एक समय सौहार्दपूर्ण संबंध थे दोनों का लक्ष्य एक था देश हित मनोज की फिल्मों को सरकार भी सराहती थी यहां तक कि कई बार उन्हें सरकारी आयोजनों में आमंत्रित किया जाता था लेकिन जल्द ही यह रिश्ता टकराव में बदलने वाला था.
25 जून 1975 एक ऐसा दिन जब पूरा देश अचानक चुप हो गया इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल यानी इमरजेंसी की घोषणा की लोकतंत्र का गला घोटा गया अखबारों पर सेंसर लगा राजनीतिक नेताओं को जेल भेजा गया और आम जनता को आवाज उठाने से रोका गया लेकिन इसका असर सिर्फ राजनीति पर नहीं बल्कि सिनेमा पर भी पड़ा फिल्में अब सिर्फ मनोरंजन का साधन नहीं थी सरकार को डर था कि फिल्में जनता को भड़का सकती हैं इसलिए जिन कलाकारों ने इमरजेंसी का विरोध किया उनकी फिल्मों पर बैन लगाना शुरू हो गया और इस फेयरिस्ट में सबसे बड़ा नाम था मनोज कुमार मनोज कुमार उस समय एक बेहद अहम फिल्म बना रहे थे.
10 नंबरी फिल्म रिलीज से पहले ही सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने बिना कोई ठोस वजह बताए फिल्म को रोक दिया इसके बाद जो हुआ वो और भी चौंकाने वाला था उनकी अगली फिल्म थी शोर एक भावनात्मक कहानी एक बाप की अपने बेटे के लिए जद्दोजहद यह फिल्म उन्होंने खुद लिखी थी खुद निर्देशित की थी और खुद प्रोड्यूस की थी लेकिन क्या हुआ सरकार ने फिल्म को बिना बड़े पर्दे पर लाए सीधे दूरदर्शन पर दिखा दिया इसका मतलब क्या हुआ फिल्म ने थिएटर में कमाई नहीं की दर्शक सिनेमाघर पहुंचे ही नहीं और मनोज कुमार को भारी आर्थिक नुकसान झेलना पड़ा अब कोई और होता तो हार मान जाता लेकिन मनोज कुमार वह तो क्रांति वाला आदमी था उन्होंने वह रास्ता चुना जिससे लोग डरते थे सरकार के खिलाफ कोर्ट में केस वह अकेले थे पीछे कोई संगठन नहीं कोई गॉड फादर नहीं सिर्फ अपने सच पर विश्वास हफ्तों कोर्ट के चक्कर काटे मीडिया में खबरें दबा दी गई.
फिल्मी दुनिया ने चुप्पी साध ली लेकिन मनोज अड़े रहे और आखिरकार न्याय की जीत हुई कोर्ट ने कहा सरकार गलत थी मनोज कुमार की फिल्म को अनावश्यक रूप से नुकसान पहुंचाया गया वे बन गए पहले ऐसे फिल्मकार जिन्होंने भारत सरकार को अदालत में हराया सरकार के मुंह पर करारा तमाचा खाने के बाद सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने एक प्रस्ताव भेजा इमरजेंसी पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाइए लेखन का जिम्मा था अमृता प्रीतम को देना सरकार सोचती थी कि शायद मनोज कुमार इससे मना नहीं कर पाएंगे लेकिन जवाब क्या मिला जो सरकार कलाकार की आजादी छीनती है मैं उसके लिए एक शब्द भी नहीं लिख सकता मनोज कुमार उन्होंने सिर्फ प्रस्ताव नहीं ठुकराया बल्कि अमृता प्रीतम को भी सख्त जवाब दिया क्योंकि उनके लिए सिनेमा सिर्फ करियर नहीं था.
वह एक जिम्मेदारी थी यह पूरी लड़ाई मनोज कुमार ने अकेले लड़ी कई फिल्मी सितारों ने उस समय चुप्पी साध ली कुछ ने सरकार का समर्थन किया क्योंकि उन्हें डर था कि उनका करियर खतरे में पड़ जाएगा लेकिन मनोज कुमार के लिए करियर नहीं कौम की जुबान मायने रखती थी वह जानते थे कि यह लड़ाई छोटी नहीं है यह भविष्य के हर कलाकार के लिए एक मिसाल बनने वाली है 1977 में जब इमरजेंसी हटी और जनता पार्टी की सरकार आई तब देश में एक नई चेतना आई मनोज कुमार को फिर से सराहा गया उनकी फिल्में फिर से दिखाई जाने लगी लेकिन उन्होंने मीडिया में कभी कोई बयानबाजी नहीं की प्यार वफा सब बातें हैं बातों का कभी यह नहीं कहा मैंने सरकार को हराया क्योंकि उनके लिए सम्मान और सिद्धांत किसी प्रचार से कहीं ऊंचे थे मनोज कुमार अब हमारे बीच नहीं है 4 अप्रैल 2025 तड़के सुबह 3:30 बजे मुंबई के कोकिला बेन अस्पताल में उन्होंने अपनी अंतिम सांस ली.
लेकिन क्या वह चले गए नहीं वह आज भी जिंदा है वह आज भी जिंदा है हर उस युवा के अंदर जो अपने विचारों पर डटा है हर उस कलाकार के भीतर जो सच बोलने से नहीं डरता हर उस भारतीय के अंदर जो भारत को सिर्फ जुबान से नहीं दिल से जीता है यह कहानी सिर्फ मनोज कुमार की नहीं है यह उस दौर की है जब कलम बंद थी मगर कैमरा बोल रहा था जब संसद में चुप्पी थी तो एक अभिनेता ने मंच से आवाज उठाई जब सब खामोश थे तो एक भारत कुमार सिर्फ पर्दे पर नहीं हकीकत में भी भारत बन गया साहस दिखा सकता है.