मनोज कुमार ने क्यों रफी साहब की आवाज अपने गानों के लिए लेने से मना कर दिया था?

क्या आपको कभी ऐसा महसूस हुआ है कि रफी साहब की जादुई आवाज मनोज कुमार पर फिट नहीं बैठती शायद नहीं क्योंकि रफी साहब की आवाज तो हर अभिनेता के लिए जैसे बनाई गई हो लेकिन सोचिए अगर मैं आपसे कहूं कि एक बार मनोज कुमार ने खुद रफी साहब की आवाज को ठुकरा दिया चौक गए ना व भी किसी मामूली गाने के लिए नहीं बल्कि एक फिल्म के टाइटल सॉन्ग के लिए आखिर ऐसा क्या हुआ था जो भारत कुमार ने रफी साहब जैसे लेजेंड का विरोध किया कौन सी थी वह फिल्म और इस कहानी के पीछे की असली सच्चाई क्या है इन सवालों के जवाब आपको मिलेंगे.

साल था 1967 और सिल्वर स्क्रीन पर एक ऐसी फिल्म तैयार हो रही थी जिसने संगीत प्रेमियों के दिलों पर गहरी छाप छोड़ी पत्थर के सनम गफ्फार नाडियाडवाला के प्रोडक्शन और राजा नवाथे के निर्देशन में बनी इस फिल्म में मुख्य भूमिकाएं निभाई थी मनोज कुमार और वहीदा रहमान ने अब बात करें फिल्म के गानों की तो यहां संगीत का जादू रचा था मजरू सुल्तानपुरी के दिल छू लेने वाले बोलों और लक्ष्मीकांत प्यारेलाल की लाजवाब धुनों उने फिल्म में कुल छह गाने थे और इनमें से पांच गानों की रिकॉर्डिंग मुकेश लता मंगेशकर और आशा भोसले की आवाज में पहले ही पूरी हो चुकी थी.

लेकिन कहानी में ट्विस्ट तब आता है जब एक खास गाना फिल्म का टाइटल सॉन्ग अब तक रिकॉर्ड नहीं हुआ था इस गाने की अहमियत सिर्फ इसकी धुन या बोलों में नहीं थी बल्कि इसे आवाज देने वाले रफी साहब की उपस्थिति इसे और खास बना रही थी यह गाना जो मनोज पर फिल्माया जाना था फिल्म का सबसे महत्त्वपूर्ण गाना था पत्थर के सनम तुझे हमने मोहब्बत का फिल्म के दूसरे गाने जैसे महबूब मेरे तू है तो दुनिया कितनी हंसी है महबूब मेरे तू है तो दुनिया कितनी हसी है और तौबा ये मत वाली चाल तबा मत वाली चाल रुक जाए फूलों की डाल जैसे गानों ने पहले ही दर्शकों का मन लुभा लिया था लेकिन टाइटल सॉन्ग को लेकर सबकी नजरें रफी साहब पर टिकी थी मजरूह साहब गाना लिख चुके थे लक्ष्मीकांत प्यारे लाल धुन तैयार कर चुके थे और अब इंतजार था उस लम्हे का जब रफी साहब अपनी जादुई आवाज से इस टाइटल गीत को अमर कर दें अब कहानी में आता है एक ऐसा मूड जिसने फिल्म के सबसे अहम गाने पर पर सवाल खड़ा कर दिया मनोज कुमार जो फिल्म के हीरो थे सीधे लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के पास पहुंचे और एक चौकाने वाली बात कही मैं चाहता हूं कि इस फिल्म का टाइटल सॉन्ग रफी साहब की जगह मुकेश जी की आवाज में रिकॉर्ड किया जाए लक्ष्मीकांत प्यारेलाल यह सुनकर सन्न रह गए उनकी वर्षों की मेहनत और गाने की आत्मा जो उन्होंने रफी साहब की आवाज में ही महसूस की थी उसको अब अचानक बदलने की बात हो रही थी.

उन्होंने मनोज कुमार को बहुत समझाया रूह साहब के लिखे इस गीत की भावना और हमारी धुन रफी साहब के लिए बनाई गई है यह गाना उनकी आवाज में ही जीवंत हो सकता है लेकिन मनोज कुमार अपनी बात पर अड़े रहे इस बहस ने एक नया मोड़ लिया जब मनोज कुमार सीधे फिल्म के प्रोड्यूसर गफ्फार नाडियाडवाला के पास पहुंचे गफ्फार साहब जो संगीत के गहरे जानकार थे ने बड़ी शांति से इस विवाद को संभालने की कोशिश की उन्होंने मनोज कुमार से कहा देखिए आप हमारे हीरो हैं और आपकी पसंद का सम्मान करना हमारी जिम्मेदारी है लेकिन इस गाने का जो प्रभाव हम दर्शकों तक पहुंचाना चाहते हैं .

वह सिर्फ रफी साहब की आवाज में ही मुमकिन है लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का फैसला पूरी तरह सही है गफ्फार साहब की समझदारी और तर्कों ने आखिरकार मनोज कुमार को निरुत्तर कर दिया थोड़ी निराशा के साथ लेकिन इस बार मनोज कुमार को मानना पड़ा और इसी के साथ यह तय हो गया कि फिल्म का टाइटल सॉन्ग रफी साहब ही गाएंगे और फिर वह जादुई पल आया जब टाइटल सॉन्ग रिकॉर्ड हुआ जैसे ही रफी साहब ने गाना शुरू किया स्टूडियो में मौजूद हर शख्स की सांसें थम गई पत्थर के सनम तुझे हमने मोहब्बत का खुदा जाना पत्थर के सनम तुझे हमने पहली ही पंक्ति में ऐसा लगा मानो गाना किसी और ही दुनिया में ले जा रहा हो रफी साहब की आवाज में जो दर्द जो शोखी और जो जज्बात थे उन्होंने इस गाने को लोगों के दिलों में हमेशा के लिए बसा दिया हर सुर हर शब्द जैसे रफी साहब की आवाज में एक नई जिंदगी पा रहा था इस गाने का जादू ऐसा था कि जब भी इसे सुना जाता सुनने वाले बस खो जाते यह गीत किसी के लिए मोहब्बत की परिभाषा बन गया तो किसी के लिए बिछड़ने का दर्द साल 1967 में जब यह गाना रिलीज हुआ तो इसने हर संगीत प्रेमी को दीवाना बना दिया और सोच यही गाना आज भी उतना ही ताजा उतना ही लोकप्रिय है.

रफी साहब की आवाज ने इसे सिर्फ एक गाना नहीं बल्कि एक एहसास बना दिया यह गाना हमें यह याद दिलाता है कि कुछ आवाजें और कुछ धुने कभी पुरानी नहीं होती वे अमर होती हैं जैसे यह गाना जो हमेशा के लिए हमारे दिलों का हिस्सा बन चुका है पथर के सनम गाने की जबरदस्त सफलता ने सभी को हैरान कर दिया और सबसे से ज्यादा प्रभावित हुए खुद मनोज कुमार गाने की हर पंक्ति हर सुर ने यह साबित कर दिया कि रफी साहब की आवाज में एक ऐसा जादू है जिसे शब्दों में बयान करना मुमकिन नहीं मनोज कुमार को जल्द ही यह एहसास हुआ कि रफी साहब के विरोध में खड़ा होना उनकी सबसे बड़ी भूल थी।

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