रुई बेचते थे रतन टाटा के परदादा, टाटा कैसे बना इतना बड़ा समूह?..

रतन टाटा अब हमारे बीच नहीं रहे लेकिन जिस टाटा ग्रुप का लोहा पूरी दुनिया मानती है उसकी नीव 19वीं सदी में जमशेद जी टाटा ने रुई बेचने से शुरू की थी आज के इस वीडियो में कहानी टाटा ग्रुप के संस्थापक जमशेद जी टाटा जी समुदाय के पादरी थे और नाम था नशेर वांजी और मां का नाम था जीवन भाई टाटा पारसी पादरियों के अपने खानदान में नौशेरवान जीी पहले पारसी थे जिन्होंने बिजनेस में कदम रखा किस्मत उन्हें बंबई ले आई जहां 14 साल की उम्र में जमशेद जी भी पिता के साथ कारोबार में उतरे और साथ ही साथ बंबई के एल्फिन कॉलेज में दाखिला ले लिया.

और तभी हीराबाई दबू से उनकी शादी हुई और ग्रेजुएशन के बाद पिता के कारोबार में पूरी तरीके से जमशेद जी टाटा उतर गए यह वोह दौर था जब 1857 की क्रांति को अंग्रेजों ने कुचल दिया था हिंदुस्तान पर ब्रिटेन की महारानी का कब्जा था और देश पर उन्हीं का शासन चलता था उन दिनों 29 साल की उम्र में साल 1968 में ₹2000000 दिनों ब्रिटेन की महारानी का हिंदुस्तान प्रशासन चलता था उनकी हुकूमत चलती थी और जमशेद जी ने अपनी नई कंपनी का नाम एक तरीके से महारानी को समर्पित कर दिया हालांकि उन दिनों तक भी जमशेद जी को बंबई के कारोबारी छोटा व्यापारी ही समझते थे लेकिन नागपुर में लगाई इंप्रेस मिल इस भ्रम को तोड़ने वाली जमशेद जी ने जब नागपुर में कॉटन मिल लगाई तब बंबई के टेक्सटाइल नगरी एक तरीके से बंबई को कहा जाता था और ज्यादातर कॉटन मिल मुंबई में ही थी.

इसलिए जब जमशेद जी ने नागपुर को चुना तो उनकी बड़ी आलोचना हुई लेकिन इसके पीछे उनका तर्क यह था कि कपास का उत्पादन आसपास के इलाकों में होता था रेलवे जंक्शन नजदीक था और पानी के साथ ईंधन भी सही तरीके से मौजूद था लेकिन कारोबार की शुरुआत में ही जमशेद जी टाटा को एक बड़ा नुकसान उठाना पड़ा और अपने जो उनके पार्टनर थे जो साझेदार थे उनको रुपए देने के लिए उनका हिस्सा देने के लिए अपनी जमीन अपना मकान उन्हे सब कुछ बेचना पड़ा और इतना ही नहीं इसके अलावा 1887x नई और बेहतर श्रम नीतियां बनाई और इस नजर से भी वह अपने समय से कहीं आगे थे.

सफलता को कभी उन्होंने अपनी जागीर नहीं समझा बल्कि उनके लिए उनकी सफलता उन सब की सफलता थी जो उनके साथ काम करते थे जमशेद जी टाटा ने जब कारोबार शुरू किया तब देश पर अंग्रेजों की हुकूमत थी और उनका मानना था कि आर्थिक स्वतंत्रता से ही राजनीतिक स्वतंत्रता का रास्ता बनता है जमशेद जी टाटा के दिमाग में तीन बड़े विचार थे एक अपनी लोहा और स्टील कंपनी खोलना दूसरा जगत प्रसिद्ध अध्ययन केंद्र स्थापित करना और तीसरा जल विद्युत परियोजना लगाना.

लेकिन दुर्भाग्य से उनके जीवन काल में तीनों में से कोई भी सपना पूरा ना हो सका पर वह एक बीज वो बो चुके थे और एक ऐसा बीज जिसकी जड़े उनकी आने वाली पीढ़ी ने अनेक देशों में फैलाई लेकिन जो एकमात्र सपना वह पूरा होता देख सके वह था होटल ताज ये दिसंबर 1903 में 4 करोड़ 2 लाख की लागत से तैयार हुआ था इसमें भी उन्होंने अपनी राष्ट्रवादी सोच को दिखाया था दरअसल उन दिनों स्थानीय भारतीयों को यूरोपियन होटल में घुसने नहीं दिया जाता और जमशेद जी टाटा का होटल ताज इसी दमनकारी नीति के मुंह पर एक जोरदार तमाचा था.

जमशेद जी 19 मई 1904 को इस दुनिया को छोड़कर जरूर चले गए लेकिन उनकी सोच उनका मिशन उनके इरादे आने वाली पीढ़ी ने आगे बढ़ाए और वह रतन टाटा तक पहुंचे और रतन टाटा का भी कार्यकाल कमोवेश ऐसा ही रहा जिसमें उन्होंने अपने पूरे कार्यकाल में अपने पूरे जीवन में लोगों की भलाई के लिए काम किया और दानवीर भी कहलाए.

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