उनकी सादगी सिर्फ चेहरे तक सीमित नहीं थी बल्कि उनके हावभाव बात करने के अंदाज और अभिनय में भी वही शालीनता झलकती थी जब वह पर्दे पर आधी थी तो उनका चेहरा नहीं उनकी आत्मा अभिनय करती थी रोग लगाया जैसे रोग उस दौर में जब सिनेमा पूरी तरह मर्दों के कंधों पर टिका हुआ माना जाता था नरगिस दत्त ने यह सोच बदल दी उन्होंने दिखा दिया कि हीरोइन सिर्फ सुंदरता या सपोर्टिंग किरदार नहीं होती वह कहानी की आत्मा हो सकती हैं मदर इंडिया में उनका किरदार राधा ऐसा जीवंत और भावनात्मक था कि लोगों ने स्क्रीन पर नहीं अपने दिल में उसे जगा दी उन्होंने साबित कर दिया कि सिनेमा सिर्फ नायक की कहानी नहीं नायिका की ताकत भी है.
उस जमाने में जब एक्ट्रेस को सिर्फ शोपीस माना जाता था नरगिस ने अपनी हर फिल्म में आत्मा फूंकी और अकेले दम पर हिट कराने की ताकत दिखाई जिस वक्त नरगिस जिंदगी और निधन की लड़ाई लड़ रही थी अस्पताल का हर कोना सन्नाटा ओढ़े खड़ा था डॉक्टर्स ने उम्मीद छोड़ दी थी कहा गया अब बस और मत कीजिए इन्हें चैन से जाने दीजिए वो एक कड़वा लेकिन मेडिकलली जस्टिफाइड सुझाव था मगर वहां एक पति था जो सिर्फ एक प्रेमी नहीं एक योद्धा भी था सुनील दत्त ने सिर झुकाने से इंकार कर दिया उन्होंने कहा जब तक मेरी सांसे चल रही है मैं उसे जाने नहीं दूंगा उस पल ना तो विज्ञान काम आया ना दवाइयां सिर्फ उस प्रेम ने उम्मीद बचाई थी मैं उनसे प्यार कर लूंगी वही वो पल था जब यह रिश्ता सिर्फ शादी का नहीं समर्पण का प्रतीक बन गया और यहीं से नरगिस की कहानी एक प्रेम गाथा में बदल गई जिसमें अंतिम इच्छा अधूरी रही लेकिन प्रेम की परीक्षा पूरी तरह पास हो गई।
नरगिस सिर्फ किसी की पत्नी या किसी की मां नहीं थी वो उस दौर की वह मशाल थी जिसने नायिका के किरदार को रोशनी दी उनका असली नाम था फातिमा रशीद लेकिन पर्दे पर आने से पहले ही उन्हें एक नई पहचान दे दी गई नरगिस यह नाम उनकी मां जद्दन बाई ने रखा जो खुद संगीत और संघर्ष का दूसरा नाम थी महज छ साल की मासूम उम्र में नरगिस को कैमरे के सामने खड़ा किया गया वो भी इसलिए ताकि मां का कर्ज उतर सके घर का चूल्हा जलता रहे किसी और के लिए यह शोषण होता लेकिन नरगिस ने इसे मजबूरी को अपनी ताकत बना लिया उन्होंने सिनेमा को सिर्फ पेशा नहीं इबादत समझा और हर फिर रोल में खुद को पूरी तरह से झोंक दिया यही वजह है कि उन्होंने जो भी किया उसमें केवल अभिनय नहीं था आत्मा थी यह कहानी सिर्फ नरगिस की नहीं बल्कि एक ऐसी विरासत की है जो अंधेरे से उजाले तक का सफर तय करती है उनकी नानी दलीपा बाई एक मासूम लड़की जो बहकावे में आकर घर से निकली और फिर सीधे पर पहुंचा दी गई वही जहां जिंदगी सिर्फ जिस्म तक सिमट जाती है वहां से पैदा हुई जद्दन बाई जिन्होंने अपनी मां की तरह ही की जिंदगी देखी लेकिन एक फर्क के साथ उनके अंदर सुरों की आग थी एक ललक थी कुछ और बनने की संगीत उनकी राह बना और कोठे से उठकर वो माइक के सामने जा खड़ी हुई।
शीश महल में आया एक मतवाला चोर उन्होंने फिल्मों में कदम रखा प्रोड्यूसर बनी और फिर अपनी बेटी फातिमा रशीद यानी नरगिस को एक नई राह पर चलाया यह तीन पीढ़ियों की कहानी है एक औरत जिसे बेचा गया एक औरत जिसने उस विरासत को तोड़ा और तीसरी जिसने उस विरासत को इतिहास बना दिया अगर कोई कहता है कि लड़कियां बस किस्मत की मारी होती हैं तो नरगिस की यह तीन पीढ़ियां उन्हें जवाब है कि संघर्ष विरासत में मिले तो भी जीत हासिल की जा सकती है।
1935 में जब वह सिर्फ छ साल की थी तब नरगिस ने तलाश हक से अपनी फिल्मी सफर की शुरुआत की यह शुरुआत किसी सुनियोजित प्लानिंग का नतीजा नहीं थी बल्कि हालात की मजबूरी और मां के कर्ज की झंझट का एक मूख उत्तर था लेकिन वक्त बीतता गया और नरगिस हर फिल्म के साथ परिपक्व होती गई फिर आया साल 1949 जब महबूब खान की फिल्म अंदाज ने उन्हें रातोंरात हिंदी सिनेमा की सबसे बड़ी स्टार बना दिया उस दौर में जहां नायिका को बस हीरो की खूबसूरती को निहारने तक सीमित कर दिया जाता था वहीं नरगिस अंदाज में आत्मसम्मान मोहब्बत और पीड़ा के हर रंग को जीती नजर आई।
इसके बाद उन्होंने राज कपूर के साथ जो सिनेमाई जादू रचा वो इतिहास बन गया बरसात की बारिश आवारा की गलियां शी 420 की मुस्कान इन फिल्मों में नरगिस ने सिर्फ अभिनय नहीं किया बल्कि भारतीय औरत की भावनाओं को पर्दे पर सांस दी नादान बलम तुम क्या जानो वो अब सिर्फ एक अभिनेत्री नहीं थी एक आंदोलन बन चुकी थी जो हर उस लड़की के लिए उम्मीद थी जो समाज की सीमाओं को चुनौती देना चाहती थी नरगिस सिर्फ अभिनय में ही नहीं अपने पहनावे और मौजूदगी में भी एक स्टेटमेंट थी उन्हें सफेद रंग से गहरा लगाव था और यह महज एक पसंद नहीं एक पहचान थी वो जब सफेद साड़ी में कहीं जाती थी तो लगता था जैसे से सादगी भी रॉयल हो सकती है धीरे-धीरे उनका यह स्टाइल इतना मशहूर हो गया कि लोग उन्हें लेडी इन वाइट कहने लगे उस दौर में जब अभिनेत्रियां भारी भरकम गहनों और चमकदार लिबासों में सजी रहती थी नरगिस ने सफेद रंग को अपना हथियार बना लिया ओ चले जाना तुम दूर बड़े शौक से हुज दूर ना सादगी के लिए बल्कि एक आत्मविश्वास भरे अस्तित्व के लिए उनका अंदाज ना परंपराओं से टकराता था ना ही पूरी तरह उनमें घुलता था वह बस अपनी ही राह पर चलती थी जब लंबे बाल चलन में थे वह छोटे बाल रखती थी जब महिलाओं से चुप रहने की उम्मीद की जाती थी वह मंचों से बोलती थी वह वाकई अहेड ऑफ हर टाइम थी क्योंकि उन्होंने कभी ट्रेंड फॉलो नहीं किया वह खुद ट्रेंड बन गई नरगिस सिर्फ अभिनय में ही नहीं अपने पहनावे और मौजूदगी में भी एक स्टेटमेंट थी उन्हें सफेद रंग से गहरा लगाव था और यह महज एक पसंद नहीं एक पहचान थी वह जब सफेद साड़ी में कहीं जाती थी तो लगता था जैसे सादगी भी रॉयल हो सकती है राज कपूर और नरगिस के बीच का रिश्ता एक ऐसी किताब था जिसका हर पन्ना मोहब्बत से लिपटा हुआ था लेकिन आखिरी पन्ना कभी लिखा ही नहीं गया ।
9 साल तक दोनों ने एक दूसरे के साथ काम किया जिया हंसे रोए और मोहब्बत की उन गहराइयों में उतर गए जहां सांस भी कम पड़ने लगे नरगिस ने राज में अपना सब कुछ देखा एक साथी एक संरक्षक एक सपना लेकिन राज कपूर पहले से शादीशुदा थे उन्होंने वादे किए मैं तलाक ले लूंगा तुम्हारे साथ जिंदगी शुरू करूंगा और नरगिस ने हर वादा आंख बंद करके मान लिया लेकिन वक्त गुजरता गया और वह वादे सिर्फ बातों में रह गई राज की जिम्मेदारियां बढ़ती गई और नरगिस की उम्मीदें टूटती गई उन्होंने रिश्ते को निभाया क्योंकि उनका प्यार सच्चा था लेकिन एक दिन जब आत्मा भी थक गई और दिल ने खुद से सवाल पूछा क्या मैं सिर्फ इंतजार के लिए बनी हूं तब नरगिस ने खुद को तोड़ लिया उन्होंने राज को नहीं छोड़ा बल्कि उस मोहब्बत को छोड़ दिया जिसमें नाम नहीं था भविष्य नहीं था और खुद के लिए कोई जगह नहीं थी।
यह वो मोड़ था जहां से नरगिस की असली जिंदगी शुरू हुई खुद के लिए जब किसी को सच्चा प्यार होता है तो वह सिर्फ साथ नहीं देता वह हर दर्द हर जिम्मेदारी को अपने हिस्से का हिस्सा मान लेता है यही किया नरगिस ने जब राज कपूर की फिल्में लगातार फ्लॉप हो रही थी जब आर के स्टूडियो की नीव हिलने लगी थी तब नरगिस ने चुपचाप अपने गहने बेच दिए उन्होंने ऐसे प्रोड्यूसर्स की फिल्में की जिन्हें वह पहले मना कर चुकी थी सिर्फ इसलिए ताकि राज कपूर की मुश्किलें कम की जा सके उन्होंने कभी कोई शिकायत नहीं की ना किसी मंच पर खड़ी होकर अपने त्याग का ढोल पीटा उन्होंने जो किया उसे बस एक नजर में देख पाना भी आसान नहीं था क्योंकि वह त्याग दिखावे के लिए नहीं दिल से था यह प्यार था या समर्पण इसकी परिभाषा शायद कोई शब्द दे ही नहीं सकता लेकिन एक बात तय है जो रिश्ता शादी का नाम ना पाकर भी इस कदर निभाया गया वो किसी किताब की नहीं आत्मा की कहानी है।
नरगिस ने राज कपूर के लिए सिर्फ समय नहीं दिया उन्होंने अपने सपने अपनी ऊर्जा और यहां तक कि अपनी संपत्ति तक दे दी लेकिन फिर भी उन्होंने कभी खुद को पीड़िता नहीं कहा क्योंकि शायद यही उनका प्रेम था या शायद खुद को भूल जाने की हद तक किया गया समर्पण कोयल शोर मचाए सुनील दत्त की शुरुआत फिल्मों से नहीं आवाज से हुई थी वह रेडियो सिलोन के लिए काम करते थे एक गंभीर सौम्य और बेहद शर्मीले रेडियो जॉकी जब उन्हें नरगिस का इंटरव्यू करने का मौका मिला तो उनके लिए यह किसी सपने से कम नहीं था सामने बैठी थी नरगिस उस दौर की सबसे चमकती हुई अदाकारा और सुनील दत्त उस लम्हे को जी भी नहीं पा रहे थे।
इंटरव्यू अधूरा रह गया सवाल गुम हो गए और सिर्फ एक खामोश सी मुस्कान रह गई वक्त ने करवट ली और कुछ सालों बाद मदर इंडिया में दोनों को साथ काम करने का मौका मिला यह कोई इत्तेफाक नहीं था जैसे ऊपर वाले की कोई विशेष योजना थी फिल्म में नरगिस ने मां का किरदार निभाया और सुनील दत्त उनके बेटे का लेकिन सेट पर जो रिश्ता बना वो रोल से परे था वो जो पहली मुलाकात थी रेडियो स्टेशन में वो अब एक रिश्ते की शुरुआत बन चुकी थी और मदर इंडिया के सेट पर हर सीन के बीच हर चाय के प्याले के पीछे एक एहसास धीरे-धीरे आकार लेने लगा वो एहसास जिसे बाद में दुनिया ने सुनील और नरगिस की प्रेम कहानी कहा मदर इंडिया की शूटिंग अपने चरम पर थी सेट पर एक वाला सीन फिल्माया जा रहा था जो स्क्रिप्ट के मुताबिक नाटकीय था लेकिन किस्मत ने उस सीन को हकीकत में बदल दिया अचानक लपटें बेकाबू हो गई सेट पर अफरातफरी मच गई सब भागने लगे और नरगिस उन लपटों में फंस गई कोई हिम्मत नहीं कर पा रहा था पास जाने की क्योंकि आग अब बस शो का हिस्सा नहीं रही थी वह हो चुकी थी और तभी भीड़ से एक इंसान दौड़ पड़ा सुनील दत्त ना उन्होंने सुरक्षा की सोची ना किसी सलाह की सुनी बस आग के बीच कूद पड़े और नरगिस को बचाने नहीं जा रहे थे वो उस पल अपने पूरे वजूद के साथ उस औरत के लिए लड़ने जा रहे थे जिसे वह बिना कहे ही दिल दे चुके थे उन्होंने नरगिस को अपनी बाहों में उठाया और से बाहर ले आए खुद बुरी तरह झुलस गए।
लेकिन उनके चेहरे पर शिकन नहीं थी वो सिर्फ एक बचाव नहीं था वो एक रिश्ता था जो आग की परख से निकलकर अमर हो गया उस एक सीन ने दोनों की किस्मत बदल दी उस दिन नरगिस को यह एहसास हो गया कि जो इंसान बिना कुछ मांगे जान की परवाह किए बिना उन्हें बचा सकता है शायद वही उनका असली हमसफर है उस दिन लपटों में सिर्फ एक सीन नहीं जला वहां एक रिश्ता तब कर सच्चा सोना बन गया जब की लपटों से झुलसे हुए सुनील दत्त अस्पताल के बिस्तर पर पड़े थे तो नरगिस का चेहरा उनकी देखभाल में झुका रहता था कभी दवाई थामे कभी बर्फ की पट्टी रखते हुए तो कभी बस चुपचाप उन्हें ताकते हुए वो चुप्पी किसी बोझ की नहीं एहसान की नहीं बल्कि मोहब्बत की चुप्पी थी।
उस वक्त नरगिस को पहली बार महसूस हुआ कि सच्चा प्यार सिर्फ शब्दों में नहीं होता बल्कि उस इंसान की नजरों में होता है जो बिना कहे सब कुछ लुटा देता है सुनील दत्त ने कभी कोई दावा नहीं किया कोई वादा नहीं किया उन्होंने सिर्फ करके दिखाया वह भी जान पर खेलकर और नरगिस जो कभी प्यार में टूट चुकी थी अब फिर से किसी के लिए मुस्कुराना सीख रही थी अस्पताल के उन दिनों ने दोनों के दिलों के बीच एक ऐसा पुल बना दिया था जिसे अब कोई हिला नहीं सकता था कुछ हफ्तों के बाद जब सुनील दत्त ठीक हो चुके थे एक शाम नरगिस को घर छोड़ते वक्त उन्होंने अचानक कहा “मुझे आपसे कुछ कहना है ” नरगिस ने पलट कर देखा और सुनील ने सादा सा सवाल किया क्या आप मुझसे शादी करेंगी कुछ पल की खामोशी के बाद नरगिस बस मुस्कुरा दी और यही मुस्कान हां थी ।
कोई ड्रामा ही इज़हार नहीं कोई फिल्मी डायलॉग नहीं बस एक सच्चा एहसास जो आखिरकार अपने नाम हो गया 1958 में नरगिस और सुनील दत्त ने गुपचुप तरीके से शादी कर ली यह फैसला सिर्फ प्यार का नहीं था समझदारी का भी था नरगिस उस दौर की सबसे बड़ी अभिनेत्री थी और सुनील दत्त फिल्मी करियर की शुरुआत में थी दोनों जानते थे इस रिश्ते की खबर बाहर आते ही मीडिया में हलचल मच जाएगी अफवाहएं उड़ेंगी और शायद उनका निजी जीवन पब्लिक तमाशा बन जाएगा।
इसलिए उन्होंने इस रिश्ते को 1 साल तक सिर्फ अपनी दुनिया तक सीमित रखा एक शांत सादा लेकिन मजबूत रिश्ता आएगी बारात रंगीली होगी रात मगन मैं नाचू 1959 यानी 1959 में उन्होंने आधिकारिक तौर पर शादी की घोषणा की और लोगों को यह देखकर हैरानी नहीं हुई कि दो खूबसूरत समझदार और संवेदनशील लोग आखिरकार एक दूसरे के हो गए फिर उनकी जिंदगी में वह तोहफे आए जो किसी भी रिश्ते को मुकम्मल बना देते हैं संजय दत्त प्रिया दत्त और नम्रता दत्त एक अदाकारा और एक अभिनेता जब माता-पिता भी बन चुके थे कैमरे से भरी इस दुनिया में वे अपने घर को एक सच्चे प्यार का रूप दे रहे थे जिसमें नाटकीयता थी ना दिखावा सिर्फ मोहब्बत थी और मिलकर जीवन की साधारण खुशियां जीने की ईमानदार कोशिश नरगिस और सुनील दत्त के रिश्ते में प्यार किसी दिखावे का मोहताज नहीं था वह छोटी-छोटी बातों में छिपा था।
सुनील दत्त को अपनी पत्नी को साड़ी उपहार में देने का बेहद शौक था हर त्यौहार हर खास मौके पर वो बड़ी खुशी से नरगिस के लिए साड़ियां चुनते थे नरगिस भी हर बार मुस्कुराकर साड़ी लेती शुक्रिया कहती लेकिन कभी पहनती नहीं थी यह बात सुनील दत्त को थोड़ी खलती थी लेकिन उन्होंने कभी पूछने की हिम्मत नहीं की क्योंकि उन्हें पता था कि नरगिस हर चीज को अपनी ही तरह सहेजती हैं सालों बाद जब किसी ने नरगिस की अलमारी खोली तो एक संदूक में तह करके रखी गई वह सारी साड़ियां मिली एक-एक करके जैसे समय के साथ सहेजे गए पल हो शायद नरगिस के लिए वे साड़ियां कोई लिबास नहीं थी।
वे हर एक मोड़ की याद थी पहली दिवाली पहला बर्थडे पहला झगड़ा पहली सुलह और कुछ ऐसी यादें होती हैं जिन्हें ओढ़ा नहीं जाता बस चूकर महसूस किया जाता है नरगिस ने उन साड़ियों को पहनकर नहीं सहेज कर अपने दिल के सबसे करीबी कोने में रखा था जहां वो हर दिन उन्हें महसूस कर सके बिना कहे बिना जताए शादी के बाद नरगिस ने कैमरे से दूर हो जाना चुना उन्होंने वह जीवन अपनाया जो शायद कई लोग एक अभिनेत्री के लिए कल्पना भी नहीं कर सकते थे एक घरेलू जिंदगी जिसमें शोहरत नहीं बच्चों की मुस्कान मायने रखती थी उनके लिए अब रेड कारपेट से ज्यादा मायने रखता था संजय का स्कूल प्रोजेक्ट प्रिया की बाल कहानियां या नम्रता की तबीयत उन्होंने जिस दुनिया को एक समय अपने कंधों पर उठाया था उससे पीछे हटना उन्हें कमजोरी नहीं लगा वह एक नई भूमिका में उतर चुकी थी पूरे मन से पूरे प्रेम से लेकिन जिंदगी की किताब में कुछ पन्ने ऐसे होते हैं जिन्हें हम कभी पलटना नहीं चाहते फिर भी वे अचानक सामने आ जाते हैं ऐसा ही एक दिन आया जब नरगिस की तबीयत बिगड़ने लगी सिर दर्द और थकावट को उन्होंने आम समझा लेकिन जांच में सामने आया का एक झटका था जैसे जिंदगी अचानक लड़खड़ा गई हो डॉक्टर्स ने कहा इलाज तुरंत चाहिए एक औरत जिसने ग्लैमर से मोहब्बत नहीं की बल्कि जिम्मेदारी से नाता जोड़ा था अब एक नई लड़ाई के लिए तैयार हो रही थी।
लेकिन इस बार यह कोई किरदार नहीं था यह हकीकत थी बेहद कड़वी बेहद कठिन और बेहद अकेली जैसे यह तय हुआ कि नरगिस को अग्नाशय का कैंसर है परिवार टूट गया लेकिन हिम्मत नहीं हारी उन्हें इलाज के लिए अमेरिका न्यूयॉर्क ले जाया गया जहां के मशहूर अस्पतालों में बेस्ट डॉक्टर्स की टीम लगी कई हफ्तों तक और तमाम मेडिकल प्रक्रियाए चली शरीर कमजोर होता गया लेकिन चेहरे पर एक मुस्कान बनी रही जैसे खुद को नहीं अपने परिवार को दिलासा दे रही हो कि मैं ठीक हो जाऊंगी कुछ समय बाद डॉक्टर्स ने राहत की खबर दी कैंसर कंट्रोल में है यह सुनकर परिवार की सांस में सांस लौटी नरगिस को भारत वापस लाया गया लेकिन जिंदगी की किताब में यह राहत बस एक अध्याय था आखिरी नहीं भारत लौटने के कुछ ही हफ्तों बाद उनकी तबीयत फिर से बिगड़ने लगी शरीर जवाब देने लगा दवाएं बेअसर होती गई और फिर एक दिन वह कोमा में चली गई उनकी आंखें बंद थी।
लेकिन उनके चारों ओर खामोशी चीख रही थी घर में हर कोई चुप था सिर्फ मशीनें बोल रही थी और एक शख्स सुनील दत्त हर रोज उनका हाथ थामे बैठे रहते थे जैसे कह रहे हो तुमने सबको बचाया है अब मैं तुम्हें बचाऊंगा लेकिन अब वक्त उनके साथ नहीं था और जिंदगी नरगिस को धीरे-धीरे खामोशी की तरफ ले जा रही थी अस्पताल के उस कमरे में न जाने कितनी रातें बिना नींद के गुजरी थी सुनील दत्त हर दिन वही सवाल लिए बैठते थे क्या आज की सुबह मेरी नरगिस की आंखें खुलेंगी लेकिन दिन बीतते गए और मशीनों की बीप के सिवा कोई जवाब नहीं आया।
डॉक्टर्स ने साफ शब्दों में कह दिया अब यह केवल जीवन रक्षक मशीनों पर है अगर यह कभी लौटती भी हैं तो सिर्फ एक जिंदा लाश बनकर बेहतर होगा इन्हें चैन से जाने दीजिए यह वाक्य किसी तलवार की तरह सुनील दत्त के सीने में उतर गया लेकिन उन्होंने सिर नहीं झुकाया उन्होंने सिर्फ एक बात कही जब तक मैं हूं तब तक वह रहेंगे वह मेरी जिम्मेदारी है मेरा प्यार है मैं उन्हें यूं जाने नहीं दूंगा उनके संकल्प में कोई शोर नहीं था बस एक अिग विश्वास था एक पति का एक प्रेमी का और एक साथी का क्या जानो और फिर वही हुआ जिसे चमत्कार कहते हैं एक सुबह जब सब कुछ पहले जैसा ही शांत और स्थिर था नरगिस की आंखों ने हल्का सा कंपन किया उनके होठ हिले सुनील दत्त जो पास ही बैठे थे तुरंत उठे डॉक्टर दौड़े और कुछ ही पलों में वो जो पिछले कई दिनों से सिर्फ एक सांस लेती देह थी उन्होंने आंखें खोली पूरा कमरा जैसे सांस लेना भूल गया सुनील दत्त की आंखों से आंसू नहीं जैसे पूरा जीवन बह रहा था यह कोई फिल्मी सीन नहीं था।
यह उस प्रेम की जीत थी जिसने मौत को भी दो कदम पीछे कर दिया था जब नरगिस ने आंखें खोली तो लगा जैसे जिंदगी ने हार नहीं मानी सुनील दत्त की उम्मीदें फिर से खिल उठी बच्चों के चेहरे पर मुस्कान लौटी लेकिन यह मुस्कान ज्यादा दिन टिक नहीं पाई कुछ ही हफ्तों में फिर से वही लक्षण लौट आए दर्द कमजोरी और थकावट इस बार शरीर पहले से भी ज्यादा कमजोर हो चुका था और कैंसर पहले से ज्यादा निर्दई डॉक्टर्स ने फिर जांच की और जो रिपोर्ट आई उसने सबकी सांसे रोक दी कैंसर लौट आया था लेकिन अब नरगिस की हिम्मत भी जवाब दे रही थी वह लड़ना चाहती थी लेकिन शरीर अब उसका साथ नहीं दे रहा था सुनील दत्त हर रोज उनका हाथ थामे बैठते जैसे कह रहे हो अगर मैं तुम्हारी जगह ले सकता तो ले लेता और फिर आया वो दिन जिसे कोई याद नहीं करना चाहता लेकिन भुला भी नहीं सकता 3 मई 1981 नरगिस ने चुपचाप बहुत शांत होकर अंतिम सांस ली कोई आंसू नहीं कोई शोर नहीं बस एक लंबा सन्नाटा जिस औरत ने जिंदगी भर हर दर्द को मुस्कुराकर झेला वह अब खुद दर्द से परे जा चुकी थी उस दिन सिनेमा ने अपनी आत्मा खो दी।
एक परिवार ने अपनी रीड और एक बेटा संजय दत्त अपनी सबसे पहली ताकत नरगिस चली गई लेकिन पीछे छोड़ गई एक ऐसी विरासत जो अब भी हर पर्दे पर हर दिल में जिंदा है रिमझिम दिल जाए रे मन हर एक आके सीने में नरगिस के लिए रॉकी सिर्फ एक फिल्म नहीं थी वो उनके बेटे का सपना था उसका पहला कदम उसकी उड़ान संजय दत्त के लिए वो तो एक डेब्यू था लेकिन नरगिस के लिए यह एक मां के गर्व की पराकाष्ठा थी उन्होंने हर दिन उस फिल्म के बनने की प्रक्रिया को देखा सुना महसूस किया और हर सीन के पीछे उनका आशीर्वाद था बीमारी से जूझती हुई भी वह यही कहती थी “मुझे रॉकी देखनी है अगर स्ट्रेचर पर भी ले जाना पड़े तो ले जाना लेकिन मैं फिल्म जरूर देखूंगी लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था फिल्म की रिलीज डेट तय थी 8 मई 1981 लेकिन नरगिस उससे 5 दिन पहले 3 मई को इस दुनिया को अलविदा कह गई वो इच्छा जो उन्होंने हर दर्द के बीच जाहिर की थी अधूरी रह गई और उस दिन जब रॉकी का प्रीमियर हुआ पूरा थिएटर खचाखच भरा था मगर एक सीट खाली थी वो सीट किसी आम दर्शक के लिए नहीं थी वो नरगिस के लिए रखी गई थी उस पर फूल रखे गए और एक चुप्पी थी जो पूरे हॉल में गूंज रही थी सब जानते थे अगर वह सीट भरी होती तो सबसे पहले ताली वही बजाती सबसे ज्यादा मुस्कुराहट उन्हीं के चेहरे पर होती लेकिन अब वो मुस्कान एक याद बन चुकी थी और वो कुर्सी एक स्थाई श्रद्धांजलि तो वीराने में भी आ जाएगी बहार छूने लगेगा जब मां की निधन हुई संजय दत्त तब भीड़ में खड़े थे रिश्तेदारों से घिरे हुए पत्रकारों के कैमरों से घिरे हुए लेकिन उनके भीतर कुछ सुन था आंसू नहीं निकले शायद वह सदमे में थे या शायद उनका दिल उस वक्त कुछ भी महसूस करने की हालत में नहीं था।
मां चली गई थी क्या चाहे लगा ले जोर दिल की बात बताऊं बालम दिल की बात वो मां जिन्होंने हर मोड़ पर उनका हाथ थामा था जो हर गलती पर डांटने के बाद भी उन्हें सीने से लगाती थी लेकिन उस वक्त जब अंतिम विदाई हो रही थी संजय चुप थे बिल्कुल शांत फिर कुछ महीने बाद एक दिन राजकुमार हिरानी ने उन्हें एक टेप सुनाया जिसमें नरगिस की आवाज थी वो आवाज जिसमें ममता थी दुलार था और एक गहराई थी जो सीधे संजय के दिल में उतर गई बस उसी पल कुछ टूटा और फूट पड़ा संजय फूट-फूट कर रोने लगे 4 घंटे तक लगा था जो आंसू मां के सामने नहीं निकल पाए वो अब एक रिकॉर्डेड आवाज पर बरस रही थी वो टेप कोई शब्दों का जखीरा नहीं था वह एक मां की आखिरी उपस्थिति थी जो बेटे के भीतर का तूफान बहा ले गई तूने भी नहीं देखा मौसम था ये यही वो मोड़ था जब संजय ने अपनी जिंदगी की सबसे खतरनाक लड़ाई का ऐलान किया ड्रग्स के खिलाफ उन्होंने कहा मां के जाने के बाद ही मैं बदलना चाहता था मुझे पता था अगर मैंने खुद को नहीं संभाला तो मां की आत्मा भी मुझे माफ नहीं करेगी उस दिन से उन्होंने लड़ना शुरू किया खुद से अपनी आदतों से अपनी कमजोरियों से दान फतेह हर हर मैदान फते रे बंद हर मैदान फते और इस बार उनकी प्रेरणा कोई डॉक्टर कोई दोस्त नहीं था सिर्फ एक आवाज थी जो अब भी उनके कानों में गूंजती थी संजू तुम सब कर सकते हो प्यार करने वालों को नरगिस ये सब इस दुनिया में नहीं है।
लेकिन उनका होना हर उस इंसान में बसता है जो सादगी को सुंदरता मानता है जो बिना दिखावे के प्यार करता है और जो अपनी जिम्मेदारियों को बेमिसाल अंदाज में निभाता है वो एक अभिनेत्री थी लेकिन पर्दे से उतरने के बाद भी उन्होंने समाज के लिए देश के लिए जो किया वो उन्हें महज स्टार नहीं एक प्रेरणा बनाता है से छोड़ो ये आना जाना दिल की नजर से बचाओगे तुम उनकी याद में हर साल राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार में एक विशेष सम्मान दिया जाता है नरगिस दत्त पुरस्कार यह पुरस्कार राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने वाली सर्वश्रेष्ठ फिल्म को मिलता है यह सिर्फ एक ट्रॉफी नहीं होती बल्कि उस भावना का प्रतीक है जो नरगिस की जिंदगी और उनके विचारों में बसी थी एकजुटता सेवा और बिना शोर के बदलाव लाने की ताकत उनकी सादगी आज भी एक मिसाल है जो लोग उन्हें जानते थे कहते हैं नरगिस जितनी बड़ी स्टार थी उससे कहीं बड़ी इंसान थी और यही वजह है कि उनका नाम अब सिर्फ फिल्म इतिहास में नहीं राष्ट्र की एकता की पहचान में दर्ज हो चुका है।
नरगिस चली गई लेकिन वह हर साल हर अवार्ड के मंच पर हर प्रेरणादायक फिल्म में हर सच्चे किरदार में फिर से जिंदा हो जाती हैं सबको छोड़कर चले जाते हो तुम कहां मुंबई की भीड़ रफ्तार और शोर के बीच जब आप बांद्रा के एक सड़क पर चलते हैं तो अचानक एक नाम दिखता है नरगिस दत्त रोड यह सिर्फ एक सड़क नहीं एक सम्मान है एक स्मृति है एक ऐसी औरत की कहानी का स्थाई हिस्सा जिसने कैमरे के सामने ही नहीं जिंदगी के हर मोड़ पर गरिमा और ताकत से जीना सीखा वह अब इतिहास बन चुकी हैं लेकिन वह कोई ठंडी किताब का हिस्सा नहीं वह जिंदा प्रेरणा है हर मां जो अपने बच्चों को सपनों की उड़ान देती है हर पत्नी जो अपने पति के संघर्ष में साथी बनती है मेरे मन का मोती है और हर कलाकार जो अपनी पहचान से आगे जाकर समाज के लिए कुछ करना चाहता है उनके लिए नरगिस दत्त एक जीवंत उदाहरण है इस सड़क का नाम सिर्फ एक ट्रिब्यूट नहीं है यह उस राह का प्रतीक है जिसे नरगिस ने अपने जीवन में चुना था एक साधारण पृष्ठभूमि से उठकर असाधारण बन जाना और फिर वो असाधारणता भी दूसरों के लिए समर्पित कर देना बेचक दाना बेचक दाना दाने ऊपर दाना चक दाना इसीलिए जब भी कोई उस सड़क से गुजरता है वो अनजाने में एक महान आत्मा को सलाम करता है जो अब भी हवा में दीवारों पर और इंसानी रिश्तों में जिंदा है अब जब आप नरगिस की यह पूरी कहानी जान चुके हैं से सिनेमा तक मोहब्बत से संघर्ष तक मां से महानता तक तो जरा रुकिए और सोचिए एक ऐसी औरत जिसने पूरी जिंदगी दूसरों के लिए जिया जिसने हर फैसले में अपने परिवार अपने देश और अपने फर्ज को पहले रखा उसकी अपनी आखिरी ख्वाहिश भी अधूरी रह गई जाने ना नजर पहचान वो सिर्फ इतना चाहती थी अपने बेटे संजय को बड़े पर्दे पर पहली बार देखना एक मां के लिए इससे बड़ी कोई तमन्ना नहीं हो सकती वो बीमार थी बिस्तर पर थी लेकिन बार-बार कहती थी मुझे रॉकी देखनी है चाहे स्ट्रेचर पर ही क्यों ना ले जाना पड़े लेकिन निधन ने वह यह ख्वाहिश पूरी नहीं होने दी 3 मई को उन्होंने अंतिम सांस ली और 8 मई को रॉकी रिलीज हुई मैं कहीं धड़के हवाई तो वो चाहती थी अपने बेटे की आंखों में पर्दे की चमक देखना उसकी पहली तालियों की आवाज सुनना लेकिन उस दिन थिएटर की एक सीट खाली थी और खाली नहीं सबसे भरी हुई क्योंकि उस पर सिर्फ एक इंसान नहीं एक अधूरी इच्छा बैठी थी जो ता उम्र हर मां के दिल में धड़कती रहेगी नहीं वक्त गुजरता नहीं कभी-कभी जिंदगी की सबसे बड़ी महानता इस बात में होती है कि हम सबको दे देते हैं और अपने हिस्से की एक छोटी सी ख्वाहिश तक रोक देते हैं।
नरगिस ने भी यही किया और इसी में उन्होंने अमरता पा ली नरगिस एक नाम नहीं एक भावना थी और हैं वो सिर्फ सिनेमा की चमकदमक में नहीं हर उस आम जिंदगी में बसती हैं जहां एक औरत चुपचाप बिना शोर किए सबके लिए लड़ती है जब कोई मां अपने बेटे को सीने से लगाकर उसके डर को अपने आंचल में समेट लेती है जब कोई पत्नी अपने बीमार पति के सिरहाने बैठकर पूरी दुनिया से लड़ जाती है जब कोई लड़की अपने सपनों को जिंदा रखने के लिए पूरे समाज से टकरा जाती है तब वहां सिर्फ एक महिला नहीं होती वहां नरगिस होती है आवाज़ यह किसकी आती है जो छेड़ के दिल खो जाते उनकी कहानी भले ही एक समय में खत्म हो गई हो लेकिन उनके जीने का तरीका उनका समर्पण उनकी मजबूती आज भी जिंदा है वह हर उस स्त्री में बार-बार जन्म लेती हैं जो अपने लिए नहीं अपनों के लिए जीती हैं जो प्रेम करती है पर उसे अपना कमजोर पक्ष नहीं बनने देती वह नरगिस थी और वह हर औरत जो अपनी आवाज नहीं अपने कर्म से दुनिया को बदलती है वह एक नई नरगिस ही होती है।
नरगिस ने मदर इंडिया का किरदार नहीं निभाया था उन्होंने उसे जिया था फिल्म में उन्होंने उस मां को पर्दे पर उतारा था जो बेटे के अपराध के सामने कानून को चुनती है जो खेतों में पसीना बहाकर पूरे गांव को पालती है जो हर दर्द को सीने में दबाकर अपने बच्चों के लिए दीवार बनकर खड़ी रहती है लेकिन हकीकत में भी नरगिस कुछ अलग नहीं थी वह भी एक मां थी जो अपने बेटे की हर मुस्कान हर हार हर उम्मीद की पहली साथ ही थी उन्होंने सिनेमा के लिए बहुत कुछ किया पर अपनी आखिरी ख्वाहिश पूरी नहीं कर सकी बस एक साधारण सी चाहत थी अब अपने बेटे को बड़े पर्दे पर देखना क्या यह कोई बड़ी मांग थी क्या कोई मां यह हक नहीं रखती कि वो अपने बेटे की पहली उड़ान देख सके लेकिन मौत ने उनका टिकट काट दिया इससे पहले कि वो शो में जा पाती आज भी जब मदर इंडिया का नाम लिया जाता है तो लोग फिल्म को याद करते हैं लेकिन जो इस किरदार के पीछे असल मां थी उसकी जिसकी अपनी अधूरी ख्वाहिश एक सवाल बन गई ।